Book Title: Bhagawan Parshwanath Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 11
________________ भगवान पार्श्वनाथ । ठान ली थी। सच है जिसके मनपर वैराग्यका गहरा और पक्का रंग चढ़ जाता है, उसपर और कोई रंग अपना असर नहीं कर पाता है । भारतका यह पुरातन नियम रहा है कि वृद्धावस्थाको पहुंचते२ ही लोग आत्महितचिन्तनासे वनोवास स्वीकार कर लेते थे। दुनियांकी झंझटोंसे छूटकर-व्याधियोंकी पोटको फेंककर वे स्वावलम्बी धीरवीर पुरुष अकेले ही सर्वत्र सिंहवृत्तिसे विचरते हुये अपना कल्याण करते और अनेकों जीवोंको सुमार्ग पर लगाते थे । भटकते हुओंको रास्ता बतानेवाले वेही थे ! दुखियोंके दुःख निवारन करनेवाले और जगतका उपकार करनेवाले वेही महापुरुष थे । देव और दानवकी उपासना एकसाथ नहीं होसक्ती-धर्म और धनका उपार्जन साथही साथ कर लेना असंभव है । इसीलिये आत्महितू और परोपकारी पुरुष सांसारिक मायाकी ममताको पैरोंसे ठुकरा देते और प्राकृतरूपमें सिंहवृत्तिसे नरजन्मके परमोच्च उद्देश्यको सफल बनाते हैं । आन संसारमें ऐसे परमोपकारी महापुरुषोंका प्रायः अभाव है परंतु सौभाग्यसे भारतमें अब भी उंगलियोंपर गिनने लायक ऐसे नररत्न मिलते हैं । बस, इसी आदर्शनियमका पालन करनेका निश्चय रानमंत्री विश्वभूतिने कर लिया था। वह राजा अरविंदके पास पहुंचे और अपने दोनों पुत्रों कमठ और मरुभूतिको उनकी शरणमें छोड़ आये ! इसतरह गृहस्थीके उत्तरदायित्वसे निबटकर सुगुरुकी साखिसे वह जिन-चारित्रको पालने लगे । परम उत्तम क्षमाका पालन करते, दुद्धर परीषहोंको सहते, ग्रामग्राममें विचरते वह अपना और परका कल्याण करने लगे । इस लोकमें पूज्य पुरुष होगये ! सचमुच निर्वृतिमार्ग ही रंकसे राव बनानेका द्वार है !

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