Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth Author(s): Agarchand Nahta Publisher: Bhanvarlal Nahta View full book textPage 5
________________ स्वर्गीय गणिवर्य बुद्धिमुनिजी आपकी माता ने भी अपना अन्तिम समय जान कर इन्हें एक मठाधीश-महंत को सौंप दिया था, वहां रहते समय सुयोगवश पन्यास श्री केसरमुनिजी का सत्समागम आपको मिला और जैन मुनि की दीक्षा लेने की भावना जाग्रत हुई, पन्यासजी के साथ पैदल चलते हुये लूणी जंकशन के पास जब आप आये तो सं० १६६३ में ६ वर्ष की छोटी . सी आयु में हो आप दीक्षित हो गये आपका जन्म-नाम नवल था, अब आपका दीक्षानाम बुद्धिमुनि रखा गया वास्तव में यह नाम पूर्ण सार्थक हुआ आपने अपनी बुद्धि का विकास करके ज्ञान और चारित्र की अद्भुत आराधना की। थोड़े वर्षों में ही आप अच्छे विद्वान् हो गये और अपने गुरुश्री को ज्ञानसेवा में सहयोग देने लगे । तत्कालोन आचार्य जिनयशःसूरिजी और अपने गुरू केसरमुनिजी के साथ सम्मेतशिखरजी की यात्रा करके आप महावीर निर्वाण-भूमि-पावापुरी में पधारे आचार्यश्री का चतुर्मास वहीं हुआ और ६१ उपवास करके वे वहीं स्वर्गवासी हो गये, तदनंतर अनेक स्थानों में विचरते हुये आप गुरुश्री के साथ सूरत पधारे, वहां गुरुश्री के अस्वस्थ होने पर आपने उनकी बहुत सेवा-सुश्रूषा की इसके फलस्वरूप वे स्वस्थ हो गये और बंबई जाकर चतुर्मास किया उसी चातुर्मास में कार्तिक शुक्ला ६ को पूज्य केसरमुनिजी का स्वर्गवास हो गया। करीब २० वर्ष तक आपने गुरुश्री को सेवा में रहकर ज्ञानवृद्धि और संयम और तप, जो मुनि जीवन के दो विशिष्ट गुण हैं, में आपने अपना जोवन लगा दिया, आभ्यंतर तप के ६ भेदों में वैयावृत्य सेवा में आपकी बड़ी रूचि थी, आपके गुरु श्री के भ्राता पूर्णमुनिजी के शरीर में एक भयंकर फोड़ा हो गया उससे मवाद निकलता था और उसमें कीड़े पड़ गये थे दुर्गन्ध के कारण कोई आदमी पास भी बैठ नहीं पाता था, पर आपने ६ महीनों तक अपने हाथों से उसे धोने मल्हम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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