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६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक पौराणिक प्रेमाख्यानसम्बन्धी रचनाओं की दृष्टि से भी हिन्दी साहित्य किसी होनत्व की भावना से ग्रसित नहीं था। हिन्दी प्रेमाख्यानकों में चरित-नायकों की भूमिका में कभी-कभी ऐतिहासिक व्यक्तियों को उतारा गया है और कभी उनकी कथावस्तु नितान्त काल्पनिक अथवा ख्यात एवं प्रतिपाद्य का मिश्रण लेकर सामने आई है। इन काव्यों की पृष्ठभूमि के रूप में संस्कृत के चरित-कथाकाव्यों के विषय में संक्षेप में विचार किया जा रहा है।
अपभ्रंश साहित्य में चरितकाव्यों की बहलता है। वैसे चरित-काव्यों की परम्परा संस्कृत साहित्य से ही अपभ्रंश में आई, ऐसा मानना उचित है। संस्कृत साहित्य में बुद्धचरित, हर्षचरित, दशकुमारचरित आदि प्रमुख चरित-काव्य हैं। 'चरित' शब्द का प्रयोग वाण से पहले ही होने लगा था। अश्वघोष के बुद्धचरित से इस बात की पुष्टि होती है। अश्वघोष का समय १०० ई० के आसपास माना गया है। बुद्धचरित भगवान् बुद्ध के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं से सम्बन्धित है। इस प्रकार आगे चल कर चरितकाव्यों की एक परम्परा ही कायम हो गई। अश्वघोष के बुद्धचरित से लेकर तुलसी के रामचरितमानस तक चरित-काव्यों की अविच्छिन्न परम्परा मिलती है।
संस्कृत साहित्य के महान् गद्य-कवि बाणभट्ट के दो कथाकाव्य संस्कृत साहित्य को उनकी अभूतपूर्व देन हैं। यह वही वाण हैं जिनके विषय में कहा जाता है 'बाणोच्छिष्टं जगत्सर्वम्' । बाण ने हर्षचरित में राजा हर्ष के चरित्र का सविस्तारं वर्णन किया है। वैसे हर्षचरित विशुद्ध ऐतिहासिक चरित-काव्य नहीं है । ग्रन्थ में बाण ने हर्ष के चरित्र को काव्यमयी शैली में प्रस्तुत किया है अतएव उसका ऐतिहासिक रूप विशृंखलित हो गया है। बाण के अनुसार हर्षचरित आख्यायिका है और कादम्बरी कथा । उनके मतानुसार आख्यायिका में ऐतिहासिक आधार होना चाहिए और कथा के लिए कल्पनाप्रसूत । हर्षचरित और कादम्बरी के कथानकों पर तो यह लक्षण घटित हो जाता है। परन्तु यह लक्षण विरोधपूर्ण था। दंडी और बाण के समय में कथा-आख्यायिका के लक्षणों को लेकर मतभेद
१. डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० ९. २. ए० वी० कोथ, संस्कृत साहित्य का इतिहास (हिन्दी अनुवाद), पृ० ६८. ३. डा० वा० अग्रवाल, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० ९.