Book Title: Apbhramsa Abhyas Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 26
________________ परियणहिहयहरणु गुणगणणिहि, दहछहसयलु लहु य अविचलदिहि। सुदंसणचरिउ 1.5.1,8 अर्थ - वह श्रेणिक राजा अपने नखरूपी मणियों की किरणों से नभस्थल को लाल करता था और अपने बाहुबल से सबल दिग्गजों के समूह को तोलता था। वह अपने परिजनों के हृदय को हरण करने वाला तथा गुणों के समूह का निधान था। वह षोडश कलाओं से संयुक्त तथा सहज ही अविचल धैर्य धारण करता था। गुणजुत्त, भो मित्त। जाईहिँ, पयईहिँ। सुदंसणचरिउ 4.12.1-2 अर्थ - हे गुणवान मित्र, उक्त प्रकृतियों, सत्वों..............। 6. देउल देउ वि सत्थु गुरु, तित्थु वि वेउ वि कव्वु । वच्छु जु दीसइ कुसुमियउ, इंधणु होसइ सव्वु।। परमात्मप्रकाश, 130 अर्थ - देवल (देवकुल/जिनालय), देव (जिनदेव) भी शास्त्र, गुरु, .. तीर्थ भी, वेद भी, काव्य, वृक्ष जो कुसुमित दिखायी पड़ता है वह सब ईंधन होगा। 7... दिण्णाणन्द-भेरि, पडिवक्ख खेरि, खरवज्जिय। णं मयरहर-वेल, कल्लोलवोल गलगज्जिय।। पउमचरिउ 40.163 अर्थ- शत्रु को क्षोभ उत्पन्न करने वाली आनन्दभेरी बजा दी गई, मानो ___ लहरों के समूहवाली समुद्र की बेला ही गरज उठी हो। . (19) अपभ्रंश अभ्यास सौरभ . (छंद एवं अलंकार) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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