Book Title: Apbhramsa Abhyas Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 32
________________ 7. दलइ फणिउलं, चलइ आउलं। सुदंसणचरिउ 9.3.1 अर्थ - वह नागों के समूह का दलन करता, भीड़-भाड़ के साथ चलता। 8. पडहसंखवरतंतीतालइँ, अब्भसियइँ वज्जाइँ रवालइँ।। णायकुमारचरिउ 3.1.7-8 अर्थ - पटह, शंख व सुन्दर तन्त्रीताल आदि ध्वनि-वाद्यों का अभ्यास किया। मित्ताणद्धर-वग्घसूअणा। एए णरवइ वग्घ-सन्दणा।। पउमचरिउ 60.6.3 अर्थ - मित्रानुद्धर और व्याघ्रसूदन - ये-ये राजा व्याघ्ररथ पर आसीन थे। 10. ससि विव कलोहेण, जलहि व जलोहेण जसहरचरिउ 1.17.7 अर्थ - जैसे कलाओं के संचय से चन्द्रमा और जलसमूह द्वारा जलधि । (घ) निम्नलिखित पद्यों के मात्राएँ लगाकर इनमें प्रयुक्त छन्दों के लक्षण व नाम बताइए - 1. चरमसरीरहों ते मणं, म करउ किं पि वियप्पणं। आउच्छेप्पिणु परियणं, सेवसु वच्छ तवोवणं ।। जंबूसामिचरिउ 8.7.1-2 अर्थ - रे वत्स! तुझ चरमशरीर को अपने मन में कोई विकल्प लाने की आवश्यकता नहीं है, अतः परिजनों से पूछकर तपोवन का सेवन करना। 2. . णव णीलुप्पल णयण-जुय, सोएं णिरु संतत्त। पवणपुत्त पइँ विरहियउ, कवणु पराणइ वत्त । पउमचरिउ 54.1.3-4 अपभ्रंश अभ्यास सौरभ . (छंद एवं अलंकार) (25) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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