Book Title: Apbhramsa Abhyas Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 33
________________ 3. अर्थ - यह देखकर नवनील कमल की तरह नेत्रवाली शोक से संतप्त सीतादेवी अपने मन में सोचने लगी कि पवनपुत्र तुम्हें छोड़कर अब कौन मेरी कुशल वार्ता ले जा सकता है? भवयत्तु जे? तुहुँ पवरभुओ, लहुवारउ तहिँ भवएउ हुओ। तवचरणु करिवि आउसि खइए, उप्पण मरेवि सग्गे तइए।। जंबूसामिचरिउ 3.5.7-8 अर्थ - तू जेठा भाई भवदत्त था और तेरा छोटा भाई उत्तम भुजाओंवाला भवदेव था। तपश्चरण करके आयुष्य क्षय होने पर मरकर तीसरे स्वर्ग में उत्पन्न हुए। 4. तं सुणिवि तहो वयणु, मुणि भणइ हयमयणु। तहो” कहइ वरधम्मु, जं करइ सुहजम्मु। करकण्डचरिउ 9.20.1-2 अर्थ - करकण्ड का यह वचन सुनकर कामविजयी मुनि बोले और उन्हें ऐसा उत्तम धर्म समझाने लगे जिससे जन्म सफल हो। 5. जय थियपरिमियणहकुडिलचिहुर, जय पयणयजणवयणिहयविहुर। जय समय समयमयतिमिरमिहिर, जय सुरगिरिथिर मयरहरगहिर। . णायकुमारचरिउ 1.11.3-4 अर्थ – जिनके नख और कुटिल केश स्थित और परिमित हैं, ऐसे हे भगवन, आपकी जय हो । जय हो आपकी जो चरणों में नमस्कार करने वाले जन-समूह की विपत्तियों का अपहरण करते हैं। जय हो आपकी जो सच्चे सिद्धान्तयुक्त अपने मत के स्थापक तथा मिथ्यात्वी जनों द्वारा माने हुए सिद्धान्तों के मदरूपी अंधकार का नाश करने वाले सूर्य हैं । जो सुमेरु के समान स्थिर और महोदधि के सदृश गम्भीर हैं। (26) अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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