Book Title: Apbhramsa Abhyas Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 69
________________ 6. रावण रामकिङ्करा रणे भयङ्करा भिडिय विप्फुरन्ता। विडसुग्गीव-राहवा विजयलाहवा णाइँ हणु भणन्ता।। पउमचरिउ 53.8.1 अर्थ - तब युद्ध में भीषण, तमतमाते हुए, राम और रावण के वे दोनों . अनुचर भिड़ गये। मानो विजय के लिए शीघ्रता करनेवाले माया सुग्रीव और राम ही मारो-मारो कह रहे हो। 7.. खुर-खर छज्जमाणु णं णासइ भइयएँ हयवराहुँ। णं आइउ णिवारओ णं हक्कारउ सुरवराहुं ।। - - पउमचरिउ 66.2.1 अर्थ - खुरों से खोदी हुई धूल मानो महाअश्वों के डर से नष्ट हो रही थी। वहाँ से हटाई जानेपर मानो वह देवताओं से पुकार करने जा रही हो। 8. सा वि जोइया णिवेण, णाणसायरं गएण। तम्मि दिट्ट हेमकंतु, अंगुलीउ णामवंतु। . करकंडचरिउ 1.7.5-6 अर्थ - तब ज्ञान के सागर तक पहुँचे हुए उस राजा ने उस पिटारी को जोहा (ध्यान से देखा) उसमें देखा कि स्वर्णमयी अंगुली की मोहर लगी है जिस पर नाम भी लिखा है। चावहत्था पसत्था रणे दुद्धरा, धाविया ते णरा चारुचित्ता वरा। के वि कवेण धावति कप्पंतया, के वि उग्गिण्णखग्गेहिँ दिप्पंतया।। करकंडचरिउ 3.14.5-6 अर्थ - वे प्रशस्त रण में दुर्द्धर नर प्रसन्नचित्त होकर हाथों में धनुष लिये दौड़े। कितने ही कोप से काँपते हुए और कितने ही उघाड़े हुए खड्गों से दीप्तिमान होते हुए दौड़े। (62) अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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