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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ [छंद एवं अलंकार]
डॉ० कमलचन्द सोगाणी
IHIRAAPPY
जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी
AD
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
Halneducationcremational
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ [छंद एवं अलंकार]
सम्पादक डॉ० कमलचन्द सोगाणी
(पूर्व प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र) सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर
CHER
तुज्यनीनी जी जैन विचा संस्थान श्री महावीरजी
प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
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प्रकाशक
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, श्री महावीरजी 322 220 (राजस्थान)
प्राप्ति स्थान
1. जैनविद्या संस्थान, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र,
दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004
द्वितीय संस्करण - 2008, 1100
सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन
मूल्य : 50/
पृष्ठ संयोजन
श्याम अग्रवाल,
ए - 336, मालवीय नगर, जयपुर
मोबाईल
9887223476
-
मुद्रक जयपुर प्रिन्टर्स प्रा. लि., एम.आई.रोड, जयपुर - 302 001
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अनुक्रमणिका
18-27
28
विषय
पृ. सं. प्रकाशकीय छन्द [खण्ड 1] .
1- 2 मात्रिक छन्द :- पद्धडिया, सिंहावलोक, पादाकुलक, वदनक, दोहा, 3 - 13
चन्द्रलेखा, आनन्द, गाहा, खंडयं, मधुभार, दीपक, करमकरभुजा, मदनविलास, जम्भेटिया, कुसुमविलासिका, अमरपुरसुन्दरी, चारुपद,
गंधोदकधारा, अडिल्ल [अलिल्लह], उप्पहासिनी वर्णिक छन्द :- मालती, दोधक, तोट्टक, मौक्तिकदाम, वसन्तचत्वर, 13 - 17
पंचचामर अभ्यास :- क, ख, ग, घ अलंकार शब्दालंकार :- . अनुप्रास, यमक, श्लेष
28 - 30 अर्थालंकार :- उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, विभावना, विरोधाभास, 30 - 34
. सन्देह, भ्रान्तिमान अभ्यास :- क, ख .. छन्द [खण्ड 2] मात्रिक छन्द :- रयडा, विलासिनी, मत्तमातंग, निध्यायिका, चउपही, 40 - 49
मदनावतार, सारीय, शशितिलक, मंजरी, रासाकुलक, शालभंजिका, हेलाद्विपदी, कामलेखा, दुवई, आरणाल,
लताकुसुम, तोमर वर्णिक छन्द :- सोमराजी, स्रग्विणी, समानिका, चित्रपदा,
49 - 53 भुजंगप्रयात, प्रमाणिका अभ्यास :- क, ख, ग, घ
54 - 62
35-39
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प्रकाशकीय
'अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार) ' पुस्तक पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है।
अपभ्रंश भारतीय आर्य परिवार की एक सुसमृद्ध लोकभाषा रही है । इसका प्रकाशित-अप्रकाशित विपुल साहित्य इसके गौरवमयी गाथा कहने में समर्थ है। महाकवि स्वयंभू, पुष्पदन्त, धनपाल, वीर, नयनन्दि, कनकामर, जोइन्दु, रामसिंह, हेमचन्द्र आदि अपभ्रंश भाषा के अमर साहित्यकार है । कोई भी देश व संस्कृति इनके आधार से अपना मस्तक ऊँचा रख सकती है। विद्वानों का मत है - " अपभ्रंश ही वह आर्यभाषा है जो ईसा की लगभग सातवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण उत्तर- भारत की सामान्य लोक-जीवन के परस्पर भाव - विनिमय और व्यवहार की बोली रही है ।" यह निर्विवाद तथ्य है कि अपभ्रंश की कोख से ही सिन्धी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है।
अपभ्रंश भाषा को सीखने-समझने को ध्यान में रखकर 'अपभ्रंश रचना सौरभ', 'अपभ्रंश अभ्यास सौरभ', 'अपभ्रंश काव्य सौरभ', 'प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ', 'अपभ्रंश एक परिचय' आदि पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है। इसी क्रम में ' अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलकार) ' पुस्तक तैयार की गई है।
प्रस्तुत पुस्तक में अपभ्रंश के पद्धडिया, पादाकुलक, दोहा आदि मात्रिक छंद व मालती, दोधक आदि वर्णिक छंदों के लक्षण एवं उदाहरण तथा यमक, उपमा, श्लेष आदि अलंकारों के लक्षण एवं उदाहरण दिये गये हैं । जिससे पाठक सहज-सुचारु रूप से साहित्य में प्रयुक्त छन्द एवं अलंकारों के लक्षण एवं उदाहरणों को समझ सकते हैं व काव्य रचना में प्रयोग कर सकते हैं।
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. साहित्य के क्षेत्र में छंद एवं अलंकार दोनों का ही महत्त्वपूर्ण स्थान है।
छन्दोमयी रचना मानव मन को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। छन्दों के माध्यम से काव्य का रूप जितना निखरता है वैसा छन्द विहीन रचना में संभव नहीं है। इसी तरह अलंकार काव्योत्कर्ष का एक अनिवार्य साधन है। अलंकार द्वारा काव्य में सौन्दर्य का समावेश होता है जिससे काव्यगत अर्थ का सौन्दर्य द्विगुणित हो जाता है। अलंकार काव्य को आकर्षक एवं हृदयग्राही बनाते हैं।
पुस्तक प्रकाशन में प्रदत्त सहयोग के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वानों विशेषतया श्रीमती शकुन्तला जैन के आभारी हैं। ..
पृष्ठ संयोजन के लिए श्री श्याम अग्रवाल एवं मुद्रण के लिए जयपुर प्रिन्टर्स प्रा. लि. धन्यवादाह हैं।
नरेशकुमार सेठी प्रकाशचन्द जैन
मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
संयोजक
अध्यक्ष
.
जैनविद्या संस्थान समिति
श्रुत पंचमी
ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, वीर निर्वाण संवत् 2534
8.6.2008
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छन्द [खण्ड 1]
छन्द के दो भेद माने गए हैं - .. 1. मात्रिक छन्द, 2. वर्णिक छन्द . 1. मात्रिक छन्द - मात्राओं की संख्या पर आधारित छन्दों को ‘मात्रिक छन्द' कहते हैं। इनमें छन्द के प्रत्येक चरण की मात्राएँ निर्धारित रहती हैं। किसी वर्ण के उच्चारण में लगनेवाले समय के आधार पर दो प्रकार की मात्राएँ मानी गई हैं - ह्रस्व और दीर्घ। ह्रस्व (लघु) वर्ण की एक मात्रा और दीर्घ (गुरु) वर्ण की दो मात्राएँ गिनी जाती हैं -
लघु (ल) (1) (ह्रस्व) गुरु (ग) (5) (दीर्घ) मात्राएँ गिनने के कुछ नियम हैं - (i) संयुक्त वर्गों से पूर्व का वर्ण यदि लघु है तो वह दीर्घ/गुरु माना
जाता है। जैसे- 'मुच्छिय' शब्द में 'च्छि' से पूर्व का 'मु' वर्ण
गुरु माना जायेगा। (ii) जो वर्ण दीर्घस्वर से संयुक्त होगा वह दीर्घ या गुरु माना जायेगा। . . जैसे- रामे। यहाँ 'रा' और 'मे' दीर्घ वर्ण है। यदि मे को ह्रस्व
- करना (पढ़ना) होगा तो 'मे' इस प्रकार लिखा जायेगा। (iii) अनुस्वार-युक्त ह्रस्व वर्ण भी दीर्घ/गुरु माने जाते हैं। जैसे
'वंदेप्पिणु' में 'व' ह्रस्व वर्ण है किन्तु इस पर अनुस्वार होने से .. यह गुरु (5) माना जायेगा। (iv) चरण के अन्तवाला ह्रस्व वर्ण भी यदि आवश्यक हो तो दीर्घ/
.
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मगण
गुरु मान लिया जाता है और यदि गुरु मानने की आवश्यकता न हो
तो वह ह्रस्व या दीर्घ जैसा भी हो बना रहेगा। (v) चन्द्रबिन्दुका मात्रा की गिनती पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। जैसे
देवहुँ। ‘हुँ' पर चन्द्रबिन्दु का कोई प्रभाव नहीं है। (हुँ ह्रस्व है तो
मात्रा ह्रस्व रहेगी और हूँ दीर्घ होगा तो मात्रा दीर्घ होगी।) 2. वर्णिक छन्द - जिस प्रकार मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती होती है उसी प्रकार वर्णिक छन्दों में वर्णों की गणना की जाती है। वर्णों की गणना के लिए गणों का विधान महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक गण तीन मात्राओं का. समूह होता है। गण आठ हैं जिन्हें नीचे मात्राओं सहित दर्शाया गया है -
यगण - 155 मगण - ऽऽऽ तगण ___ - ऽऽ। रगण
___ - 515 जगण - ।। भगण __ - ॥ नगण - ।।। सगण - ।।
इस प्रकार वर्णिक छन्दों में वर्ण-संख्या और गणयोजना निश्चित रहती है। यहाँ निम्नलिखित छन्दों के लक्षण एवं उदाहरण प्रस्तुत हैंमात्रिक छन्द - 1. पद्धडिया 2. सिंहावलोक 3. पादाकुलक
4. वदनक . 5. दोहा
6. चन्द्रलेखा 7. आनन्द
8. गाहा
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9. खंडयं
10. मधुभार
11. दीपक
12. करमकरभुजा
13. मदनविलास
14. जम्भेटिया
15. कुसुमविलासिका 16. अमरपुरसुन्दरी
17. चारुपद
18. गंधोदकधारा
19. अडिल्ल (अलिल्लह ) 20. उप्पहासिनी
वर्णिक छन्द - 21.
मालती
23. तोट्टक
25. वसन्तचत्वर
मात्रिक छन्द
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
22. दोधक
24. मौक्तिकदाम
26. पंचचामर
1. पद्धडिया छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में जगण ( 151 ) होता है
I
उदाहरण-:
जगण
जगण
||
|| || ऽ ।। ।
। ऽ। ऽ।
ऽ । । ऽ ऽ ।। । ऽ। जसु केवलणाण जगु गरिठु, करयल - आमलु व असेसु दिछु ।
जगण
जगण
ऽ ऽ ।। ।। ||| I । ऽ ।
।। ऽ।। 111 । ऽ।ऽ। तहीँ सम्मइ जिणहीँ पयारविंद, वंदेप्पिणु तह अवर वि जिणिंद |
सुदंसणचरिउ 1.1.11-12
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अर्थ - जिनके केवलज्ञान में यह समस्त महान जगत हस्तामलकवत् दिखाई देता है, ऐसे सन्मति जिनेन्द्र के चरणारविंदों तथा शेष जिनेन्द्रों की भी वन्दना करके (नयनन्दि अपने मन में विचार करने लगे)।
2. सिंहावलोक छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में सगण (IIS) होता है।
उदाहरण -
सगण
S ।।।। ऽ।।।।। । ऽ
ऽ ।
। ऽ।। ऽ
।। ऽ।। जं अहिणव-कोमल कमल - करा, बलिमण्डऍ लेवि अणङ्गसरा ।
सगण
।। ऽ।
सगण सगण ।।।। ऽ ऽ।। ऽ।।। | || ।।ऽ स- विमाणु पवण-मण-गमण गउ', देवहुँ दाणवहु भि रणें अजउ' । पउमचरिउ 68.9.1-2
अर्थ - अभिनव, सुन्दर कोमल हाथों वाली अनंगसरा को वह विद्याधर ज़बर्दस्ती ले गया। पवन और मन के समान गतिवाले विमान में बैठा हुआ वह देवताओं और दानवों के लिए अजेय था ।
3. पादाकुलक छन्द'
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं और सर्वत्र लघु होता है।
उदाहरण
|| || | | | | ||||||||
...........................||
सुरण-विसहर- वर-खर - सरणु, कुसुम - सर - पहर-हर - समवसरणु ।
1. चरणान्त के 'उ' ह्रस्वस्वर को लघु होने पर भी छन्दानुरोध से दीर्घ माना गया है। २. अपवाद रूप में इस छन्द के अन्त में गुरु-गुरु व लघु-गुरु आदि भी पाये जाते हैं।
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ
(छंद एवं अलंकार)
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पइस णिवइ पहुसर थुणइ, बहु-भव-भव-कयरय-पडलु धुणइ।
णायकुमारचरिउ 1.11.1-2 अर्थ- (विपुलाचल पर्वत पर पहुँचकर) राजा ने तीर्थंकर के उस समोसरण में प्रवेश किया जहाँ देव, मनुष्य, नाग और विद्याधर विराजमान थे और जो कामदेव के प्रहारों से बचानेवाला था। वहाँ पहुँचकर राजा श्रेणिक ने महावीर प्रभु को स्मरण करते हुए उनकी स्तुति की और उसके द्वारा अपने जन्मजन्मान्तर के कर्मों की धूलि को उन्होंने झाड़ डाला। 4. वदनक छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं और चरण के अन्त में दो मात्राएँ लघु (।।) होती हैं। उदाहरणल-ल
ल-ल ऽऽ ।।। 5 । 55 ।। ।। ।। 5 ।। 5 ।। रामे जणणि जं जें आउच्छिय, णिरु णिच्चेयण तक्खणे मुच्छिय। . ल-ल
ल-ल ।।55 ।। ।। ।।5।। । । ।। ।।ऽ ।। चमरुक्खेवेंहि किय पडिवायण, दुक्खु दुक्खु पुणु जाय सचेयण।
पउमचरिउ 23.4.1,3 अर्थ- राम ने जब माँ से इस प्रकार पूछा तो वह तत्काल मूर्च्छित हो गयी। चमर धारण करनेवाली स्त्रियों ने हवा की। बड़ी कठिनाई से वह सचेतन हुई। 5. दोहा छन्द लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। पहले व तीसरे चरण में तेरहतेरह मात्राएँ होती हैं और दूसरे व चौथे चरण में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं।
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उदाहरण5।। ।। ।।।।।।। ।।।।। ।। . जाणमि वणि गुणगणसहिउ, परजुवईहिँ विरत्तु।
।।। ।। ।।।।। ।। ।।। पर महु अंबुलें हियवडउ, णउ चिंतेइ परन्तु।
सुदंसणचरिउ 8.6.1-2 अर्थ- मैं जानती हूँ कि वह वणिग्वर बड़ा गुणवान है और पराई युवतियों से विरक्त है। किन्तु हे माता ! मेरा हृदय और कहीं लगता ही नहीं। 6. चन्द्रलेखा छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं व अन्तर्यमक' की योजना होती है। उदाहरण॥ ॥ऽ। । ।। ऽ।ऽ। 55।। वलु वयणेण तेण, सहुँ साहणेण, संचल्लिउ । ऽ। ।ऽ।ऽ। ।।।। ।। ऽ ऽ ।। णाँइ महासमुद्रु, जलयर - रउदु, उत्थल्लिउ॥
पउमचरिउ 40.16.2 अर्थ- इन शब्दों से, राम सेना के साथ वहाँ इस प्रकार चले जैसे जलचरों से रौद्र महासमुद्र ही उछल पड़ा हो।
1. चरण के बीच में तुक मिलने को अन्तर्यमक कहा गया है। जैसे - प्रथम चरण में ते . व साहणेण।
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार
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7. आनन्द छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में पाँच मात्राएँ होती हैं और चरण के अन्त में लघु (1) आता है। उदाहरण
5 ।। ।।।।। मा रमसु, परिहरसु ।
।। 5। 55। इय छंदु, आणन्दु ।
सुदंसणचरिउ 4.12.15-16 अर्थ - इससे रमण मत करो, इसे त्याग दो। यह आनन्द छन्द है। 8 गाहा छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में सत्ताइस मात्राएँ होती हैं। प्रथम व तृतीय यतियाँ शब्द के बीच में आती हैं। उदाहरण।।5।।5।। ।। ।। 55 5।।। मयरद्धयनच्चु नडं, तिउ जंबुकुमारें भेल्लियउ । ।।5। । 55 ।। ।।।।। 55।।। बहुवाउ ताउ - णं दि, ठुछ कट्ठमयउ वाउल्लियउ॥
जंबूसामिचरिउ 9.1.5-6 अर्थ- मकरध्वज का नाच नाचती हुई उन वधुओं को जंबुकुमार ने अपने सम्पर्क में लायी हुई काठ की पुत्तलियों के समान देखा।
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ . (छंद एवं अलंकार)
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9. खंडयं छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में तेरह मात्राएँ होती हैं और चरण के अन्त में रगण (SIS) रहता है।
उदाहरण
रगण
रगण
11 ।। ऽ।। ऽ । ऽ
||| ।ऽ।। ऽ । ऽ
पहु तउ दंसणकारणं, लहिवि वियप्पइ मे मणं ।
रगण
रगण
|| ऽ ऽ । । ऽ । ऽ
। ऽ । ऽ
सहुँ तुम्हेंहिँ समुच्चयं, चिरभवि कहि मि परिच्चयं ।
जंबूसामिचरिउ 8.2.12.
अर्थ - प्रभु आपके दर्शनों का हेतु प्राप्त कर मेरे मन में ऐसा विकल्प हुआ है कि आपके साथ कहीं पूर्वभव में विशिष्ट (प्रगाढ़ ) परिचय रहा।
10. मधुभार छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में आठ मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण
111 ऽ ।।
T I ऽ ।।
तिहुवण रम्महुँ, तो वि ण धम्महुँ ।
ऽ।। ऽ।। ऽ । ऽ ।।
लग्गहिँ मूढिउ, पाव परूढिउ ।
सुदंसणचरिउ 6.15.17-18
अर्थ - इतने पर भी वे मूढ़ पाप में फँसी हुई, त्रिभुवनरम्य धर्म में मन नहीं
लगाती।
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ
(छंद एवं अलंकार)
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11. दीपक छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 10 मात्राएँ होती हैं। चरण
के अन्त में लघु ( 1 ) होता है।
उदाहरण
ऽ ।।। ऽऽ।
।।।।। ऽऽ।
ता हयइँ तूराइँ, भुवणयल-पूराइँ ।
ऽ ऽ । ऽ ऽ ।
ऽ ऽ । ऽ ऽ ।
वज्जंति वज्जाइँ, सज्जति सेण्णाइँ |
करकंडचरिउ 3.15.1-2
अर्थ- तब नगाड़ों पर चोट पड़ी जिससे भुवनतल पूरित हो गया। बाजे बज
रहे हैं और सैन्य सज रहे हैं।
12. करमकरभुजा छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में आठ मात्राएँ होती हैं व चरण के अन्त में लघु-गुरु (15) होते हैं।
उदाहरण
ऽ ऽ।। ऽ ऽ ऽ।। ऽ
भीसावणिया, संतावणिया ।
ऽ ऽ ।। ऽ SSIIS विद्दावणिया, सम्मोहणिया ।
'अर्थ भयोत्पादिका, सन्तापिका, विद्रावणिका, सम्मोहनिका ।
-
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
णायकुमारचरिउ 6.6.9-10
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13. मदनविलास छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में आठ मात्राएँ होती हैं व चरण के अन्त में गुरु-गुरु (55) होते हैं। उदाहरणSIL 55 51155 चंदण-लित्तं, पंडुरगत्तं।
। ।ऽऽ ।।।। 55 खंधे तिसुत्तं, कयसिर छत्तं।
सुदंसणचरिउ 4.1.6 अर्थ- (कपिल) चन्दन से लिप्त, गौरवर्ण, कन्धे पर त्रिसूत्र तथा सिर पर छत्र धारण किए (था)। 14. जम्भेटिया छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में नौ मात्राएँ होती हैं व चरण के अन्त में रगण (ऽ । ऽ) आता है। उदाहरणरगण
रगण ऽ ।। ऽ । ऽ ऽ।। ऽ । ऽ . सेसवलीलिया, कीलणसीलिया ।
रगण ।। ऽ ऽ । ऽ ऽ । ऽ।ऽ पडुणा दाविया, केण ण भाविया ।
महापुराण 4.4.1-2 अर्थ- शैशव की क्रीडाशील जो लीलाएँ प्रभु ने दिखायीं, वे किसे अच्छी नहीं लगीं? (10)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
रगण
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नगण
15. कुसुमविलासिका छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में आठ मात्राएँ होती हैं। प्रारम्भ में नगण (।।।) और अन्त में लघु (1) व गुरु (5) होता है। उदाहरण
लग नगण लग ।।। ।।। 5 ।।। ।।।। चलइ णिवबलं, दलइ महियलं।
सुदंसणचरिउ 9.3.1 अर्थ - राजा का सैन्य चल पड़ा और पृथ्वीतल को रौंदने लगा। 16. अमरपुरसुन्दरी छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में दस मात्राएँ होती . हैं। चरण के अन्त में लघु (1) व गुरु (5) होता है। उदाहरण
लग
लग
।।। ।।ऽ।ऽ ।।। ।।ऽ । ऽ सहउ सिहितावणं, महउ सुहभावणं ।
सुदंसणचरिउ 6.10.3 अर्थ - चाहे पंचाग्नि तप करो, सुहावना पूजा-पाठ करो। 17. चारुपद छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में दस मात्राएँ होती हैं। अन्त में गुरु (5) व लघु (।) होता है। उदाहरणऽ ।ऽ । ऽ।।।।।।। भो रायराएस, संगहियजससेस ।
जसहरचरिउ 1.17.3 अर्थ- हे राजेश्वर, आपने समस्त यश संचित किया है। अपभ्रंश अभ्यास सौरभ
(11) (छंद एवं अलंकार)
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नगण
18. गंधोदकधारा छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में तेरह मात्राएँ होती हैं व चरण के अन्त में नगण (।।।) होता है। उदाहरणनगण
नगण ऽ ।।।। ।। ।।। ।। । ।।।। तं णिसुणेवि डोल्लिय मणेण, मारुइ वुत्तु · विहीसQण,
_ नगण । ।। 5 ।।। ।।। ।।5।। 5 ।।। ।। ण गवेसइ जं चविउ पइँ, सयवारउ सिक्खविउ मइँ।
पउमचरिउ 49.6.1-2 अर्थ- यह सुनकर विभीषण का मन डोल उठा। उसने हनुमान को बताया कि रावण कुछ समझता ही नहीं, जो कुछ आप कह रहे हैं उसकी मैंने उसे सौ बार शिक्षा दी। 19. अडिल्ल (अलिल्लह) छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं और अन्त में दो मात्राएँ लघु (1) होती हैं।
उदाहरण
ऽऽऽऽ।। 55।। ।। ।।।।।।।।। छंदालंकार' णिग्घंटइँ, जोइसाइँ गहगमणपयट्टई।
णायकुमारचरिउ 3.1.5 अर्थ- उसने छंद, अलंकार, निघण्टु, ज्योतिष, ग्रहों की गमन प्रवृत्तियों ।
(12)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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20. उप्पहासिनी छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं और अन्त में लघु-गुरु-लघु-गुरु होता है। उदाहरण11551 151 515 5115 11 SISIS कुमुआवत्त - महिन्द - मण्डला, सूरसमप्पह भाणुमण्डला।
पउमचरिउ 60.6.। अर्थ- कुमुदावर्त, महेन्द्रमण्डल, सूरसमप्रभ, भाणु-मण्डल।
वर्णिक छन्द 21. मालती छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में दो जगण (15। + Is1) व छः वर्ण होते हैं। उदाहरणजगण जगण जगण जगण । । । । ।।।।। णवेवि मुणिंदु भवीयणचंदु। 1 2 3 4 5 6 123456
णायकुमारचरिउ 9.21.1 अर्थ - भव्यजनों में चन्द्र के समान श्रेष्ठ मुनिराज को नमस्कार करके। 22. दोधक छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में तीन भगण (5।। + SII + 5II) और दो गुरु (5 + 5) व 11 वर्ण होते हैं।
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ . (छंद एवं अलंकार)
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उदाहरणभगण भगण भगण ग ग ऽ। ।। ।। ।ऽऽ लग्गु थुणेहुँ पयत्थ विचित्तं 12 345 6 7 8 91011 भगण भगण भगण ग ग ऽ। ।। ।। । 55 णाय णराण सुराण विचित्तं। 12 345 678 91011
- पउमचरिउ 71.11.1 अर्थ- उसके अनन्तर, रावण विचित्र स्तोत्र पढ़ने लगा, नागों, नरों और देवताओं में विचित्र। 23. तोट्टक छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में चार सगण (115 + IIs + IIS + IIS) व 12 वर्ण होते हैं। उदाहरणसगण सगण सगण सगण ।। ।। ।। ।। । अह एक्कु चमक्कु वहंतु मणे, 1 2 34 567 8910 1112
सगण सगण सगण सगण ।। ।। ।। ।। ।। इल - रक्खु समक्खु पहुत्तु खणे। 1 2 3 4 567 8910 1112
सुदंसणचरिउ 2.13.5
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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अर्थ- उसी समय एक चमक (घबराहट) मन में धारण करके खेत का रखवाला उसके सम्मुख आ पहुंचा। 24. मौक्तिकदाम छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में चार जगण (ISI + ISI + ISI + ISI) व 12 वर्ण होते हैं। उदाहरणजगण जगण जगण जगण ।5।। 5।।5।। ।। सुदुद्धरु अंजणपव्वय काउ . 1234 5678910 1112 जगण जगण जगण जगण. ।5।।5।। ।। ।। दिसाकरितासणु मेहणिणाउ। 123456789101112 जगण. जगण जगण जगण । । । । । । । । सदप्पु वि वेज्झु ण देइ करिंदु 123 4 5 6 7 89 101112 जगण . . जगण जगण जगण 151 151 151 151 मणम्मि भरंतह. देउ जिणिंदु। 1234567 8 9 101112
सुदंसणचरिउ 8.44.1 अर्थ- अति दुर्द्धर, अंजनपर्वत के समान कृष्णकाय, दिग्गजों को भी त्रासदायी,
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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हा..
मेघों के समान गर्जना करनेवाला उन्मत्त हाथी, उस पर कोई आघात नहीं कर सकता जो अपने मन में जिनेन्द्र का स्मरण कर रहा हो। 25. वसन्तचत्वर छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में जगण (ISI), रगण (ऽ।ऽ) जगण (ISI), रगण (55) व 12 वर्ण होते हैं।
उदाहरण
जगण रगण जगण रगण 151515151515 झरंतसच्छविच्छुलंभणिज्झरं 123456789101112 जगण रगण जगण रगण ।ऽ । ऽ । ऽ । ऽ । ऽ।ऽ भरंतरूंदकुंडकूव कंदरं। 123456789 101112
जसहरचरिउ 3.16.3 अर्थ- हमने देखा कि उस वन में स्वच्छ बिखरे हुए पानी के झरने झर रहे हैं जिनके द्वारा विस्तीर्ण कुण्ड, कूप और कन्दर भर रहे हैं। 26. पंचचामर छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में जगण (ISI), रगण (515), जगण (ISI), रगण (5Is), जगण (151) और गुरु व 16 वर्ण होते हैं।
(16)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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उदाहरण
जगण रगण
जगण रगण
151
ऽ ।
S 151 ऽ ।
थुणेइ
देउ मोक्खहेउ चित्ति
123
4 5 6 789 1011
जगण रगण जगण
। ऽ । ऽ ।
ऽ । ऽ।
तवग्गितत्तु
मोहचत्त
12 345
67 89
जंगण रगण जगण
जगण ग
। ऽ । ऽ। ऽ । ऽ ।
। ऽ ।
ऽ । ऽ
सुरिंदवंदु ते मुणिंद ता णिसण्णु दिट्ठओ ।
12345 6 789 10 111213141516
जगण ग
रगण
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
ऽ ।
जाम
1213
जगण रगण जगण
रगण जगण ग
151 ऽ । ऽ । ऽ।
ऽ।ऽ । ऽ । ऽ
मयाण भट्टु णेत्तइट्टु जत्तिगत्तओ।
12 3 45 67 89 10111213141516
रगण जगण ग
ऽ । ऽ । ऽ । ऽ
सिद्धिकंतरत्तओ।
10111213141516
सुदंसणचरिउ 10.3.1 अर्थ- इस प्रकार जब सुदर्शन चित्त में हर्षित होकर मोक्ष के हेतुभूत जिनेन्द्र देव की स्तुति कर रहा था, तभी उसने वहाँ सुरेन्द्र द्वारा वंदनीय एक मुनिराज को बैठे देखा। वे मुनिराज तपरूपी अग्नि से तपाये हुए, मोह से त्यक्त व सिद्धिरूपी कांता में अनुरक्त, मदों से रहित, नेत्रों को इष्ट एवं शरीर के मैल लिप्त थे।
ऽ । ऽ
हिट्ठओ ।
141516
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________________
अभ्यास
।।
.
(क) निम्नलिखित पद्यों के मात्राएँ लगाकर इनमें प्रयुक्त छन्दों के
लक्षण व नाम बताइए - 1.. विधंति जोह जलहरसरिसा, वावल्लभल्ल-कण्णिय-वरिसा। फारक्क परोप्पर ओवडिया, कोंताउह कोतकरहिँ भिडिया। .
जंबूसामिचरिउ 6.6.7-8 अर्थ - योद्धा लोग जलधरों के समान बल्लभ, भालों व बाणों की वर्षा
करते हुए (परस्पर को) बींध रहे थे। फारक्क (शस्त्र को) धारण करने वाले एक-दूसरे पर टूट पड़े और कुन्तवाले कुन्त धारण .
करनेवाले प्रतिपक्षियों से भिड़ पड़े। 2. सरलंगुलिउब्भिवि जंपिएहिँ, पयडेइ व रिद्धि कुटुंबिएहिँ। देउलहिँ विहूसिय सहहिँ गाम, सग्ग व अवइण्ण विचित्तधाम।
जंबूसामिचरिउ 1.8.7-8 अर्थ - सरल अंगुलियों को उठा-उठाकर बोलने वाले अपने कुटुम्बी
अर्थात् किसान गृहस्थों के द्वारा जो अपनी ऋद्धि-समृद्धि को प्रकट करता है। देवकुलों से विभूषित वहाँ के ग्राम ऐसे शोभायमान
हैं मानो विचित्र भवनोंवाले स्वर्ग अवतीर्ण हो गए हों। 3. इय संसारे जं पियं, निसुणे वि जणणी जंपियं । चउगइदुक्खनियामिणा, भणियं जंबूसामिणा ।
जंबूसामिचरिउ 8.8.1-2 अर्थ- इस संसार में जो प्रिय है, जननी के वैसे कथन को सुनकर चारों
गतियों के दु:ख का नियमन करने वाले जम्बूस्वामी ने कहा........। णहमणिकिरणअरुणकयणहयलु, भुयबल-तुलिय-सवल-दिसगयउलु।
4.
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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परियणहिहयहरणु गुणगणणिहि, दहछहसयलु लहु य अविचलदिहि।
सुदंसणचरिउ 1.5.1,8 अर्थ - वह श्रेणिक राजा अपने नखरूपी मणियों की किरणों से नभस्थल
को लाल करता था और अपने बाहुबल से सबल दिग्गजों के समूह को तोलता था। वह अपने परिजनों के हृदय को हरण करने वाला तथा गुणों के समूह का निधान था। वह षोडश कलाओं से संयुक्त तथा सहज ही अविचल धैर्य धारण करता था। गुणजुत्त, भो मित्त। जाईहिँ, पयईहिँ।
सुदंसणचरिउ 4.12.1-2 अर्थ - हे गुणवान मित्र, उक्त प्रकृतियों, सत्वों..............। 6. देउल देउ वि सत्थु गुरु, तित्थु वि वेउ वि कव्वु । वच्छु जु दीसइ कुसुमियउ, इंधणु होसइ सव्वु।।
परमात्मप्रकाश, 130 अर्थ - देवल (देवकुल/जिनालय), देव (जिनदेव) भी शास्त्र, गुरु, .. तीर्थ भी, वेद भी, काव्य, वृक्ष जो कुसुमित दिखायी पड़ता है वह
सब ईंधन होगा। 7... दिण्णाणन्द-भेरि, पडिवक्ख खेरि, खरवज्जिय। णं मयरहर-वेल, कल्लोलवोल गलगज्जिय।।
पउमचरिउ 40.163 अर्थ- शत्रु को क्षोभ उत्पन्न करने वाली आनन्दभेरी बजा दी गई, मानो ___ लहरों के समूहवाली समुद्र की बेला ही गरज उठी हो।
.
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ . (छंद एवं अलंकार)
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8. अण्णु विहीसण गुणधणउ, सन्देसउ णीलहों तणउ। गम्पि दसाणणु एम भणु, विरुआरउ परतियगमणु।।
पउमचरिउ 49.5.1 अर्थ - और भी विभीषण! नील का भी यह गुणधन सन्देश है कि जाकर
उस रावण से कहो कि परस्त्री-गमन बहुत बुरा है। 9. इय जाम वयुपुण्ण, थिउ लेइ सुपइण्ण। - पिच्छेवि सहसत्ति, चिंतेइ णिवपत्ति।।
सुदंसणचरिउ 8.25.1-2 अर्थ - इस प्रकार जब सुदर्शन व्रतपूर्ण सुप्रतिज्ञा ले रहा था तभी राजपत्नी
सहसा उसकी ओर देखकर सोचने लगी .......। 10. मुणीण समाणु, अणुव्वजमाणु ।
णायकुमारचरिउ 9.21.9 अर्थ - मुनि के साथ पीछे-पीछे ....। 11. सोम-सुहं परिपुण्ण-पवित्तं, जस्स चिरं चरियं सु पवित्तं ।
- पउमचरिउ 71.11.3 अर्थ - सोम की भांति हे कल्याणमय, हे परिपूर्ण, पवित्र, आपका चरित्र
सदा से पवित्र है। (ख ) निम्नलिखित पद्यों के मात्राएँ लगाकर इनमें प्रयुक्त छन्दों के
लक्षण व नाम बताइए - 1. उवयागउ भावसरू, वें भुंजइ कम्मासऍण विणु। संसाराभावहाँ कार, णु भाउ जि छड्डिय परदविणु।
जंबूसामिचरिउ 9.1.18-19
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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अर्थ - ज्ञानी इस परिस्थिति को उदयागत भावों (कर्मों) के अनुसार
(नवीन) कर्मास्रव के बिना, परद्रव्य ( में आसक्ति) को छोड़कर भोगता है और यही भाव (विवेक) संसाराभाव अर्थात् मोक्ष का कारण है।
2.
3.
ता तहिँ मंडवें थक्कयं, दिठ्ठे सेट्ठिचउक्कयं । तोरणदारपराइया, तेहिँ मि ते वि बिहाइया । ।
अर्थ - तब ( इन दोनों पुरुषों ने वहाँ जाकर ) मण्डप में बैठे हुए चारों श्रेष्ठियों को देखा और तोरणद्वार पार करते ही वे दोनों भी उन श्रेष्ठियों के द्वारा देखे गए।
4.
इँ विणु को हय - गहुँ चडेसइ, पइँ विणु को झिन्दुऍण रमेस । पइँ विणु को पर-वलु भजेसइ, पइँ विणु को मइँ साहारेसइ ।। पउमचरिउ 23.4.8, 10
अर्थ - तुम्हारे बिना अंश्व और गज पर कौन चढ़ेगा? तुम्हारे बिना कौन गेंद से खेलेगा? तुम्हारे बिना कौन शत्रु सेना का नाश करेगा ? तुम्हारे बिना कौन मुझे सहारा देगा ?
उम्मोहणिया, संखोहणिया । अक्खोहणिया, उत्तारणिया ।
जंबूसामिचरिउ 8.9.1-2
कुंटिउ मंटिउ, मोट्टिउ छोट्टिउ ।
बहिरिउ अंधिउ, अइदुग्गंधिउ ।
अर्थ- उम्मोहणिका, संक्षोभणिका, अक्षोभणिका, उत्तरणिका ।
5.
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
णायकुमारचरिउ 6.6.11-12
सुदंसणचरिउ 6.15.9-10
अर्थ - वे ठूंठी, लंगडी, मोटी, छोटी, बहरी, अन्धी, अतिदुर्गन्धी होती हैं।
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(21)
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6.
अर्थ
7.
8.
-
9.
ता अमियवेएण, अमरेण हूएण ।
थियएण सग्गम्मि, चिंतियउ हिययम्मि ।।
अर्थ- समस्त जन उत्पीड़ित होता हुआ, नाम लेता हुआ एक क्षण भी नहीं थकता। लक्खण (लक्ष्मण) को उछाला जाता, गाया जाता, मृदंग वाद्य में बजाया जाता।
हुणउ तिलजवघयं णवउ दियवरसयं ।
करकण्डचरिउ 5.11.1-2
तब जो अमितवेग देव हुआ था उसने स्वर्ग में स्थित होते हुए हृदय में चिन्ता की।
सलु वि जणु उम्माहिज्जन्तउ, खणु वि ण थक्कइ णामु लयन्तउ । उव्वेलिज्जइ गिज्जइ लक्खणु, मुरव - वज्जे वाइज्जइ लक्खणु । पउमचरिउ 24.1.1-2
सुदंसणचरिउ 6.10.7
अर्थ - तिल, जौ व घृत का होम दो तथा सैंकड़ों द्विजवरों को प्रणाम
करो ।
(22)
पसुत्तु समुट्ठिउ दंतसमीहु, महाबलु लोललुवाविय - जीहु । सरोसु वि देइ कमं ण मइंदु, मणम्मि भरतह देउ जिणंदु || सुदंसणचरिउ 8.44.2
अर्थ - सोकर उठा हुआ गज का अभिलाषी, महाबलशाली, लोलुपता से जीभ को लपलपाता हुआ, सक्रोध मृगेन्द्र भी उस पर अपने पंजे का आघात नहीं कर सकता जो अपने मन में जिनेन्द्रदेव का
स्मरण कर रहा हो ।
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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10. सिणिद्धरुक्खपुप्फरेणुपिंजरं फलोवडंतवुक्करंतवाणरं।
जसहरचरिउ 3.16.5 अर्थ - वह वृक्षों को चिकनी पुष्परेणु से लाल हो रहा था, बुक्क ध्वनि
करते हुए वानर फलों के ऊपर झपट रहे थे।
पणट्ठदेसु सुक्कलेसु संजमोहवित्तओ। .. तिलोयबंधु णाणसिंधु भव्वकंजमित्तओ।।
अलंघसत्ति बंभगुत्ति सुप्पयत्त रक्खणो। जिणिंदउत्त-सत्ततत्त-ओहिणाण-अक्खणो।।
सुदंसणचरिउ 10.3.10-13 अर्थ - उनका द्वेष नष्ट हो गया था, शुक्ल लेश्या प्रकट हो गई थी और
वे संयमों के समूहरूप धन के धारी थे (अर्थात् बड़े तपोधन थे), वे त्रैलोक्य बन्धु थे, ज्ञान-सिन्धु व भव्यरूपी कमलों के मित्र (सूर्य समान हितैषी) थे। वे अलंघ्य शक्ति के धारी थे, ब्रह्मयोगी
थे, प्रयत्नपूर्वक जीवों की रक्षा करनेवाले थे एवं जिनेन्द्र द्वारा . कहे गये सात तत्त्वों का अवधिज्ञान-पूर्वक भाषण करनेवाले थे। (ग) निम्नलिखित पद्यों के मात्राएँ लगाकर इनमें प्रयुक्त छन्दों के
लक्षण व नाम बताइए - 1. रिउमारणिया, णिद्दारणिया। . महिदारणिया, णहचारणिया।
णायकुमारचरिउ 6.6.14-15 अर्थ - रिपुमारणिका, निर्दारणिका, महिदारणिका, णभचारणिका। 2. तं जो घोट्टइ, सो णरु लोट्टइ। ... गायइ णच्चइ, सुयणइँ जिंदइ।
सुदंसणचरिउ 6.2.5-6
(23)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ . (छंद एवं अलंकार)
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अर्थ - इसे जो पीता है, वह मनुष्य (उन्मत्त होकर) लोटता है, गाता है,
नाचता है, सज्जनों की निन्दा करता है। 3. जसु रूउ णियंतउ सहसणेत्तु, हुउ विभियमणु णउ तित्ति पत्तु । जसु चरणंगुठे सेलराइ, टलटलियउ चिरजम्माहिसेइ ।
सुदंसणचरिउ 1.1.5-6 अर्थ - जिनके रूप को देखते हुए इन्द्र विस्मित मन हो गया और तृप्ति
को प्राप्त न हुआ। जिनके जन्माभिषेक के समय चरणांगुष्ठ से शैलराज सुमेरु भी चलायमान हो गया। आणंदरूउ मणजोय,हो जइ तो रमणिजोउ पवरु। विणु मोक्खें सोक्खघव, क्कउ पच्चक्षु जि पावेइ णरु।
जंबूसामिचरिउ 9.2.12-13 अर्थ - यदि मनोयोग (अर्थात् चित्त-वृत्तियों का निरोध व ध्यानसमाधि)
का स्वरूप आनन्दमय है तो उससे श्रेष्ठ तो रमण योग हैं जिससे
पुरुष मोक्ष के बिना ही प्रत्यक्ष सुख की अनुभूति पा लेता है। 5. ता कुलकारिणा, णायवियारिणा। सुहहलसाहिणा, भणियं णाहिणा।
महापुराण 4.8.1-2 अर्थ - तब न्याय का विचार करने वाले शुभफल के वृक्ष कुलकर स्वामी
(नाभिराज) ने कहा। कज्जलसामलो, उडुदसणुज्जलो। पत्तउ भीयरो, तमरयणीयरो।
महापुराण 4.16.1-2 अर्थ - तब काजल की तरह श्याम, नक्षत्ररूपी दाँतों से उज्ज्वल भयंकर
तमरूपी निशाचर प्राप्त हुआ। (24)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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7. दलइ फणिउलं, चलइ आउलं।
सुदंसणचरिउ 9.3.1 अर्थ - वह नागों के समूह का दलन करता, भीड़-भाड़ के साथ चलता। 8. पडहसंखवरतंतीतालइँ, अब्भसियइँ वज्जाइँ रवालइँ।।
णायकुमारचरिउ 3.1.7-8 अर्थ - पटह, शंख व सुन्दर तन्त्रीताल आदि ध्वनि-वाद्यों का अभ्यास
किया। मित्ताणद्धर-वग्घसूअणा। एए णरवइ वग्घ-सन्दणा।।
पउमचरिउ 60.6.3 अर्थ - मित्रानुद्धर और व्याघ्रसूदन - ये-ये राजा व्याघ्ररथ पर आसीन थे। 10. ससि विव कलोहेण, जलहि व जलोहेण
जसहरचरिउ 1.17.7 अर्थ - जैसे कलाओं के संचय से चन्द्रमा और जलसमूह द्वारा जलधि । (घ) निम्नलिखित पद्यों के मात्राएँ लगाकर इनमें प्रयुक्त छन्दों के
लक्षण व नाम बताइए - 1. चरमसरीरहों ते मणं, म करउ किं पि वियप्पणं। आउच्छेप्पिणु परियणं, सेवसु वच्छ तवोवणं ।।
जंबूसामिचरिउ 8.7.1-2 अर्थ - रे वत्स! तुझ चरमशरीर को अपने मन में कोई विकल्प लाने की
आवश्यकता नहीं है, अतः परिजनों से पूछकर तपोवन का सेवन
करना। 2. . णव णीलुप्पल णयण-जुय, सोएं णिरु संतत्त। पवणपुत्त पइँ विरहियउ, कवणु पराणइ वत्त ।
पउमचरिउ 54.1.3-4 अपभ्रंश अभ्यास सौरभ . (छंद एवं अलंकार)
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3.
अर्थ - यह देखकर नवनील कमल की तरह नेत्रवाली शोक से संतप्त
सीतादेवी अपने मन में सोचने लगी कि पवनपुत्र तुम्हें छोड़कर अब कौन मेरी कुशल वार्ता ले जा सकता है? भवयत्तु जे? तुहुँ पवरभुओ, लहुवारउ तहिँ भवएउ हुओ। तवचरणु करिवि आउसि खइए, उप्पण मरेवि सग्गे तइए।।
जंबूसामिचरिउ 3.5.7-8 अर्थ - तू जेठा भाई भवदत्त था और तेरा छोटा भाई उत्तम भुजाओंवाला
भवदेव था। तपश्चरण करके आयुष्य क्षय होने पर मरकर तीसरे
स्वर्ग में उत्पन्न हुए। 4. तं सुणिवि तहो वयणु, मुणि भणइ हयमयणु। तहो” कहइ वरधम्मु, जं करइ सुहजम्मु।
करकण्डचरिउ 9.20.1-2 अर्थ - करकण्ड का यह वचन सुनकर कामविजयी मुनि बोले और उन्हें
ऐसा उत्तम धर्म समझाने लगे जिससे जन्म सफल हो। 5. जय थियपरिमियणहकुडिलचिहुर, जय पयणयजणवयणिहयविहुर। जय समय समयमयतिमिरमिहिर, जय सुरगिरिथिर मयरहरगहिर।
. णायकुमारचरिउ 1.11.3-4 अर्थ – जिनके नख और कुटिल केश स्थित और परिमित हैं, ऐसे हे
भगवन, आपकी जय हो । जय हो आपकी जो चरणों में नमस्कार करने वाले जन-समूह की विपत्तियों का अपहरण करते हैं। जय हो आपकी जो सच्चे सिद्धान्तयुक्त अपने मत के स्थापक तथा मिथ्यात्वी जनों द्वारा माने हुए सिद्धान्तों के मदरूपी अंधकार का नाश करने वाले सूर्य हैं । जो सुमेरु के समान स्थिर और महोदधि के सदृश गम्भीर हैं।
(26)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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8.
6. अइचडुलु, घणवडलु। गडयडइ, णं पडइ।
सुदंसणचरिउ11.22.5-6 अर्थ- उसके कारण घनपटल अत्यन्त चंचल होकर गड़गड़ाने लगा,
मानो वह पृथ्वी पर गिर रहा हो। 7. वियसियवत्तं, णेहलणेत्तं । इय गुणजुत्तं, दिटुं मित्तं।
सुदंसणचरिउ 4.1.8 अर्थ - प्रसन्न मुख और स्नेहिल नेत्रों वाला था। इन सब गुणों से युक्त
देखकर सुदर्शन ने उसे अपना मित्र बना लिया। उब्भिय कणयदण्ड, धुव्वन्त धवल, धुअ धयवड। रसमसकसमसन्त, तडतडयडन्त, कर गडघड।
पउचरिउ 40.16.4 अर्थ - स्वर्णदण्ड उठा लिये गये। धवल ध्वजपट उड़ने लगे। गजघटाएँ
रसमसाती और कसमसाती हुई तड़तड़ करने लगी। 9. देउ दियसासणं, लेउ गुरुपेसणं।
सुदंसणचरिउ 6.10.9 अर्थ - चाहे ब्राह्मण धर्म का उपदेश दो, चाहे गुरु से दीक्षा लो। 10. सभोयणलीणु, करेइ गिहीणु।
णायकुमारचरिउ 9.21.15 अर्थ - वह गृहस्थ स्वयं भोजन करने में प्रवृत्त होवे। . 11. भावलयामर-चामर-छत्तं, दुन्दुहि-दिव्व-झुणी-पह-वत्तं ।
पउमचरिउ 71.11.5 अर्थ - आप भामण्डल, श्वेत छत्र और चमर, दिव्यध्वनि और दुन्दुभि से .... मंडित है।
(27)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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काव्य की शोभा में वृद्धि करनेवाले तत्त्व का नाम 'अलंकार' है। काव्य को आकर्षक एवं हृदयग्राही बनाने के लिए अलंकारों की अत्यन्त आवश्यकता होती है। अलंकार के योग से उसका सौन्दर्य द्विगुणित हो जाता है। सामान्यत: अलंकारों के दो भेद माने जाते हैं - 1. शब्दालंकार 2. अर्थालंकार ।
अलंकार
1. शब्दालंकार - शब्दालंकार वह होते हैं जहाँ कथन का चमत्कार उसमें प्रयुक्त शब्दों की आवृत्ति पर निर्भर करता है । यदि उक्ति में से सम्बद्ध शब्दों को हटाकर उनके पर्यायवाची शब्द रख दिए जाएँ तो उसका चमत्कार ही समाप्त हो जाता है । अत: शब्द पर आधृत होने के कारण इन्हें शब्दालंकार कहा जाता हैं। जैसे- अनुप्रास, यमक, श्लेष आदि ।
2. अर्थालंकार - अर्थालंकार वह होते हैं जहाँ अलंकार का सौन्दर्य शब्द पर निर्भर न कर उसके अर्थ पर निर्भर करता है। किसी शब्द के स्थान पर उसके पर्यायवाची शब्द का प्रयोग कर दिए जाने पर उसका अलंकारत्व यथावत बना रहता है। अतः ऐसे अलंकार को अर्थालंकार की संज्ञा से अभिहित किया जाता है । जैसे- उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति आदि । शब्दालंकार
1. अनुप्रास अलंकार - पद और वाक्य में वर्णों की आवृत्ति का नाम है। अनुप्रास का अर्थ होता है वर्णों का बार-बार प्रयोग ।
अनुप्रास
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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उदाहरण - हा-हा णाह सुदंसण सुंदर सोमसुह। सुअण सलोण सुलक्खण जिणमइअंगरुह।
- सुदंसणचरिउ 8.41.1 अर्थ - हाय-हाय नाथ, सुदर्शन, सुन्दर, चन्द्रमा के समान सुखकारी, सुजन, सलोने, सुलक्षण जिनमति के पुत्र। व्याख्या - उपर्युक्त उदाहरण में 'स' वर्ण की बार-बार आवृत्ति हुई है।
अतः यह अनुप्रास का उदाहरण है। 2. यमक अलंकार - जहाँ पद एक से हों किन्तु उनमें अर्थ भिन्न-भिन्न हो
वहाँ यमक अलंकार होता है।
उदाहरण
सामिणो पियंकराए, सुंदरो पियंकराए।
-वड्ढमाणचरिउ 2.3.2 अर्थ - रानी प्रियंकंरा से स्वामी के लिए प्रियकारी सुन्दर (पुत्र उत्पन्न हुआ)। व्याख्या - उपर्युक्त पद्यांश में 'पियंकराए' पद दो बार भिन्न-भिन्न अर्थों में आया है। एक स्थल पर तो उसका अर्थ प्रियकारी अर्थात मन, वचन एवं कार्य से प्रिय करनेवाला तथा दूसरा 'पियंकराए' पद उसकी
रानी का नाम 'प्रियंकरा' बतलाता है। 3.श्लेष अलंकार - जब वाक्य में एक ही शब्द के दो या दो से अधिक
अर्थ निकलें तो ऐसे अनेकार्थी शब्द में श्लेष अलंकार होता है। उदाहरणबहुपहरेहिँ सूरु अत्थमियउ अहवा काइँ सीसए। जो वारुणिहिं रत्तु सो उग्गु वि कवणु ण कवणु णासए।
-- सुदंसणचरिउ 5.8 अपभ्रंश अभ्यास सौरभ · (छंद एवं अलंकार)
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अर्थ - बहुप्रहरों के बाद सूर्य अस्तमित हुआ, (मानो) बहुत प्रहारों से शूरवीर नाश को प्राप्त हुआ। अथवा क्या कहा जाय जो वारुणि (पश्चिम दिशा) से रक्त हुआ, वह वारुणि (मदिरा) में रतपुरुष के समान उग्र होकर भी कौन-कौन नष्ट नहीं होता। व्याख्या - उपर्युक्त पद्यांश में 'पहरेहि' व 'वारुणि' शब्द में श्लेष है
क्योंकि इनमें दो अर्थ निहित हैं। अर्थालंकार 4. उपमा अलंकार - जहाँ उपमेय और उपमान में भेद होते हुए भी उपमेय
के साथ उपमान के सादृश्य का वर्णन हो वहाँ उपमा अलंकार होता है अर्थात उपमेय और उपमान में समानता ध्वनित होती है। उपमा में चार तत्त्वों का होना आवश्यक है1. उपमेय 2. उपमान 3. समान धर्म और 4. वाचक शब्द (क) उपमेय - वर्ण्यविषय अर्थात् 'प्रस्तुत' उपमेय कहलाता है।
जैसे - 'मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है'। - इस वाक्य में वर्ण्यविषय मुख है अतः मुख उपमेय कहा जायेगा। (ख) उपमान - उपमान को 'अप्रस्तुत' भी कहा जाता है। मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है - इस वाक्य में मुख को चन्द्रमा की उपमा दी गई है अतः चन्द्रमा उपमान कहा जाएगा। (ग) साधारण धर्म - वह गुण या क्रिया जो उपमेय और उपमान दोनों में विद्यमान हो। मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है - इस वाक्य में 'सुन्दर' साधारण धर्म है। (घ) वाचक शब्द - जो शब्द उपमेय और उपमान की समानता ध्वनित करे वह वाचक शब्द कहा जाता है। जैसे - समान, सरिस आदि।
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अपभ्रंश में 'व' वाचक शब्द का प्रयोग होता है।
उदाहरण -
स वि धरिय एंति णारायणेण, वामद्धे गोरि व तिणयणेण।
-पउमचरिउ 31.13.4 अर्थ - उसे भी (शक्ति को भी) लक्ष्मण ने उसी प्रकार धारण कर लिया जिस प्रकार शिवजी के द्वारा वामार्द्ध में पार्वती धारण की जाती है। व्याख्या - उपर्युक्त पद्यांश में लक्ष्मण द्वारा शक्ति धारण करने को शिव द्वारा पार्वती धारण करने के समान बताया गया है अतः यहाँ उपमा
अलंकार है। 5.रूपक अलंकार - रूपक अलंकार में उपमेय पर उपमान का आरोप
कर दिया जाता है अर्थात् उपमेय को ही उपमान बता दिया जाता है। उदाहरण - णामेण णंदिवद्धणु सुत्तेउ, दुण्णय-पण्णय गण-वेणतेउ ।
- वड्ढमाणचरिउ 1.5.1 अर्थ -उस तेजस्वी राजा का नाम नंदिवर्द्धन था जो दुर्नीतिरूपी पन्नगों के लिए गरुड़ ही था। व्याख्या- उपर्युक्त पद्यांश में दुर्नीति पर पन्नगों का आरोप किया गया
है अत: रूपक अलंकार है। 6. उत्प्रेक्षा अलंकार - जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना अर्थात्
उत्कृष्ट कल्पना का वर्णन हो वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। अपभ्रंश . में इव, णं, णावइ आदि वाचक शब्दों का प्रयोग होता है।
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उदाहरण
तो सोहइ उग्गमि हे ससिद्धउ विमलपहालउ । णावइ लोयहँ दरिसियउ णहसिरिए फलिहकच्चोलउ ।
-
- सुदंसणचरिउ 8.17 घत्ता
अर्थ - उस समय आकाश में अपनी विमलप्रभा से युक्त अर्द्धचन्द्र उदित होकर ऐसा शोभायमान हुआ मानो नभश्री ने लोगो को अपना स्फटिक कटोरा दिखलाया हो ।
व्याख्या - उपर्युक्त पद्यांश में अर्द्धचन्द्र में 'स्फटिक - कटोरे' की सम्भावना के कारण व 'णावइ' वाचक शब्द के कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है ।
7. विभावना अलंकार - जहाँ कारण के अस्तित्व के बिना कार्य की सिद्धि हो वहाँ विभावना अलंकार होता है।
उदाहरण
विणु चावें विणु विरइय - थाणें, विणु गुणेहिँ विणु सर - संधाणें । विणु पहरणेहिँ तो वि जज्जरियउ, ण गणइ किं पि पुणव्वसु जरियउ । पउमचरिउ 68. 8.7-8
-
अर्थ- धनुष के बिना, स्थान के बिना, डोरा और शरसन्धान के बिना, अस्त्र के बिना ही वह इतना आहत हो गया कि जर्जर हो उठा । दग्ध होकर पुनर्वसु कुछ भी नहीं गिन रहा था ।
व्याख्या - यहाँ बिना शस्त्रास्त्र व प्रहार के पुनर्वसु को आहत दिखाया गया है। अतः यहाँ विभावना अलंकार है ।
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8. विरोधाभास अलंकार - वस्तुतः विरोध न रहने पर भी विरोध का आभास ही विरोधाभास है ।
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(छंद एवं अलंकार)
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उदाहरण -
साव-सलोणी गोरडी नक्खी क वि विसगंठि। भडु पच्चलिओ सो मरइ जासु न लग्गइ कंठि।
- हेमचन्द्र अर्थ - सर्व सलोनी गोरी कोई नोखी विष की गाँठ है। भट प्रत्युत (बल्कि) वह मरता है जिसके कंठ में (से) वह नहीं लगती। व्याख्या - उपर्युक्त पद्यांश में वस्तुतः विरोध न होते हुए भी विरोधी बात होने का आभास हो रहा है इसलिए यहाँ विरोधाभास अलंकार है। १.सन्देह अलंकार - जहाँ उपमेय में उपमान होने का सन्देह किया जाए वहाँ सन्देह अलंकार होता है। उदाहरण - किं तार तिलोत्तम इंदपिया, किं णायवहू इह एवि थिया । किं देववरंगण किं व दिही, किं कित्ति अमी सोहग्गणिही।
-सुदंसणचरिउ 4.4.1-2 अर्थ - (मनोरमा का परिचय) यह तारा है या तिलोत्तमा या इन्द्राणी? या कोई नागकन्या यहाँ आकर खड़ी हो गयी है अथवा यह कोई उत्तम देवांगना है अथवा यह स्वयं धृति है या कृति या सौभाग्य की निधि? व्याख्या - उपर्युक्त पद्यांश में मनोरमा को देखकर सन्देह की स्थिति बनी हुई है कि यह कौन है -तारा है, तिलोत्तमा है, इन्द्राणी है अथवा नागकन्या है? इसलिए यहाँ सन्देह अलंकार है। 10. भ्रान्तिमान अलंकार - नितान्त सादृश्य के कारण उपमेय में उपमान .. की भ्रांति ही भ्रांतिमान अलंकार है।
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उदाहरण -
कहिँ वि कवि अरुणकरचरण किय पयडए । भमरगण मिलिवि तहिं णलिणमण णिवडए ।
- सुदंसणचरिउ 7.18.5-6 अर्थ - कहीं कोई अपने लाल हाथ और पैर प्रकट करने लगी और भ्रमरगण उन्हें कमल समझकर एकत्र हो पड़ने लगे ।
व्याख्या - उपर्युक्त पद्यांश में सुन्दरियों के हाथों व पैरों को देखकर भौरे भ्रमवश उन्हें कमल समझ रहे हैं अतः यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है ।
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अभ्यास
(क) निम्नलिखित काव्यांशों में प्रयुक्त अलंकारों के नाम तथा
लक्षण बताते हुए व्याख्या कीजिए - 1.हउँ कुलीणु अवगण्णियउ उच्छलंतु अकुलीणउ वुत्तउ। रुहिरणइहें धूलीरएण णं इय चिंतेवि अप्पर खित्तउ॥
- सुदंसणचरिउ 9.6 घत्ता अर्थ - मैं कुलीन (पृथ्वी में लीन) होने पर अपमानित होता हूँ और ऊपर उछलते हुए अकुलीन (पृथ्वी से संलग्न) कहलाता हूँ। ऐसा सोचकर मानो धूलिरज ने अपने को उस रुधिर की नदी में फेंक दिया। 2. णमंसेवि वीरं गइंदे णरिंदो वलग्गो णवे मेहि णं पुण्णिमिंदो। रहा जाण जंपाण भिच्चा तुरंगा पयट्टा समुद्दे चला णं तरंगा॥
-सुदंसणचरिउ 1.6.7-8 अर्थ - वह वीर भगवान को नमस्कार करके एक गजेन्द्र पर आरूढ़ हुआ मानो नवीन मेघ पर पूर्ण चन्द्र चमक रहा हो। उस समय रथ, यान, झंपान,
भृत्य और तुरंग इस प्रकार चल पड़े जैसे समुद्र में तरंगें चल रही हों। 3.जिणवरघरघंटाटणटणंतु , कामिणीकरकंकण खणखणंतु ।
- महापुराण 46.2.3 अर्थ - जिनवर के मन्दिरों के घण्टों की टनटन ध्वनि तथा कामिनियों के कंगनों की खनखन ध्वनि हो रही है। . 4. तत्थत्थि सिद्धत्थु णरणाहु सिद्धत्थु ।
- वड्ढमाणचरिउ 9.3.1 अर्थ - (उस कुण्डपुर में) समस्त अर्थों को सिद्ध करलेनेवाला सिद्धार्थ नामक राजा राज करता था।
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5. अवि य- अकत्तिए निरंतरंतरं, हुयं निरब्भमबरंवरं । अपाउसे असारयं रयं, धरायले व्व निक्खयं खयं ॥
जंबूसामिचरिउ 4.8.12-13 अर्थ - और भी - कार्तिक नहीं होने पर भी आकाश निरतिशयरूप से अभ्रमुक्त हो गया, तथा वर्षाकाल नहीं होने पर भी असार (क्षुद्र) रज मान धरातल में पूर्ण उपराम को प्राप्त हो गया ।
-
6. किं लक्खणु जं पाइय कव्वहो, किं लक्खणु वायरणहों सव्वहो । किं लक्खणु जं छन्दे णिदिट्ठउ, किं लक्खणु जं भरहे गविट्ठउ ॥
- पउमचरिउ 44.3.2-3
अर्थ - (लक्ष्मण के आगमन की सूचना पाकर सुग्रीव का प्रतिहारी से प्रश्न) क्या वह लक्षण जो प्राकृत काव्य में होता है ? क्या वह लक्षण जो व्याकरण में होता है? क्या वह लक्षण जो छन्दशास्त्र में निर्दिष्ट है ? क्या वह लक्षण जो भरत की गोष्ठी में काम आता है?
7. कवि चाहइ सारुणकोमलाहँ, अंतरु रत्तुप्पल करयलाहँ । तहिँ एत्तहे तेत्तहे भमरु जाइ, कत्थई छप्पउ वि दुचित्तु भाइ ॥ - सुदंसणचरिउ 7.14.4-5 अर्थ- कोई अरुण और कोमल रक्तोत्पलों और अपने करतलों में भेद जानना चाहती थी । वह भ्रमर कभी इस ओर, कभी उस ओर जा रहा था। इस प्रकार कहीं षट्पद भी दुविधा में पड़ा प्रतीत होता था ।
8. रिसि रुक्ख व अविचल होवि थिय, किसलए परिवेढावेढि किय । रिसि रुक्ख व तवणताव तविय, रिसि रुक्ख व आलवाल रहिय ॥ • पउमचरिउ 33. 3. 4-6
-
अर्थ - मुनि वृक्ष की तरह अविचल होकर स्थित हो गए, किसलयों ने उन्हें ढक लिया। मुनि वृक्ष के समान तपन के ताप वृक्ष की तरह आलबाल परिग्रह / क्यारी से रहित थे ।
से सन्तप्त थे, मुनि
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9. कुमअसंड दुज्जणसमदरिसिअ मित्तविणासणेण जे वियसिय ।
- सुदंसणचरिउ 8. 17.5
अर्थ - कुमुदों के समूह दुर्जनों के समान दिखाई दिये । चूंकि वे मित्र (सूर्य या सुहृद) का विनाश होने पर भी विकसित हुए। 10. झाणग्गिभूइकयकम्मबंधु भव्वयणकमलकंदोट्टबंधु ।
जंबूसामिचरिउ 1.1.8
अर्थ - जिन्होंने अपने ध्यानरूपी अग्नि से कर्मबन्ध को भस्मसात कर दिया है और जो भव्यजनोंरूपी कमल-समूह के लिए सूर्य के समान है। (ख) निम्नलिखित काव्यांशों में प्रयुक्त अलंकारों के नाम तथा लक्षण बताते हुए व्याख्या कीजिए -
-
1.जय सयलंगिवग्गमणसंकर सिद्धि पुरंधिय संकर संकर ।
अर्थ- समस्त प्राणीवर्ग के मन को शान्ति प्रदान करनेवाले हे देव! आपकी जय हो । सिद्धिरूपी पुरन्ध्री को सुखी करनेवाले हे शंकर आपकी जय हो।
वड्ढमाणचरिउ 10.3.4
2. णट्टु कुरंगु व वारणबारहो, णट्टु जिणिंदु व भव संसारहो।
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-
अर्थ - लक्ष्मण को देखकर कपिल ब्राह्मण की वही दशा हुई जो शेर को देखकर मृग की होती है या जिनेन्द्र को देखकर संसारी की।
3. अज्जु अयाले वणासइरिद्धी, अहिणवदलफलकुसुमसमिद्धी । अज्जु सुयंधु एहु सीयलु घणु, वाउ वाइ जं पूरियकाणणु ॥
पउमचरिउ 28.11.2
भगवान महावीर का समोशरण विपुलाचल पर्वत पर आया और वनमाली ने आकर राजा श्रेणिक को समाचार दिया -
-
• जंबूसामिचरिउ 1.13.3-4
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अर्थ - आज अकाल अर्थात बिना ऋतु के ही समस्त वनस्पति हरीभरी हो उठी है और वह अभिनव पत्रों, पुष्पों व फलों से समृद्ध हो गयी है। आज ऐसा सुगन्धित शीतल व सघन वायु बह रहा है जिसने सारे
कानन को पूर दिया है। 4.णं कामभल्लि णं कामवेल्लि , णं कामहो केरी रइसुहेल्लि। णं कामजुत्ति णं कामवित्ति , णं कामथत्ति णं कामसत्ति॥ .
- णायकुमारचरिउ 1.15.2-3 अर्थ - वह कन्या तो जैसे काम की भल्ली, काम की लता, काम की सुखदायक रति, काम की युक्ति, काम की वृत्ति, काम की ढेरी एवं
काम की शक्ति जैसी दिखाई देती है। 5.किं पीइ रई अह खेयरिया , किं गंग उमा तह किण्णरिया। आयण्णेवि जंपइ ता कविलो, हे सुहि मत्तउ किं तुहुँ गहिलो॥ :
- सुदंसणचरिउ 4.4.5-6 अर्थ - क्या यह प्रीति है, या रति, या खेचरी? क्या यह गंगा, उमा अथवा कोई किन्नरी है? अपने मित्र की यह बात सुनकर कपिल बोला हे मित्र तुम नशे में हो, या किसी ग्रह के वशीभूत? 6.न मुणइ रत्ताहररंगगुणु , जा छोल्लइ सुद्ध वि दंत पुणु।
_ - जंबूसामिचरिउ 5.2.18 अर्थ - जो अपने रक्तिम अधरों के गहरे रंग के प्रतिबिंब को न समझ
सकने के कारण अपने स्वच्छ दाँतों को बार-बार छीलती हैं। 7.वणं जिणालयं जहा स-चन्दणं, जिणिन्द-सासणं जहा स-सावयं। महा-रणड्.गणं जहा स-वासणं, मइन्द-कन्धरं जहा स-केसरं॥
- पउमचरिउ 24.14.3-4 अर्थ - वह वन जिनालय की तरह चन्दन (चन्दनवृक्ष, चन्दन) से
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रहित था, जो जिनेन्द्र शासन की तरह सावय (श्रावक और श्वापद) से सहित था, जो महायुद्ध के प्रांगण की तरह सवासन (माँस और वृक्षविशेष) से संयुक्त था, जो सिंह के कंधो की तरह केशर (वृक्षविशेष
और अयाल) सहित था। 8.णिय मंदिरहो विणिग्गय जाणइ, णं हिमवंतहो गंग महाणइ।
- पउमचरिउ 23.6.3 अर्थ - सीता राम के साथ जाने के लिए अपने भवन से क्या निकली मानो हिमवंत से गंगा नदी ही निकली हो। 9.ससुरासुरकयजम्माहिसेउ, संसारसमुद्दुत्तारसेउ।
___ - जंबूसामिचरिउ 1.1.4 अर्थ - देवताओं सहित असुरों द्वारा जिनका जन्माभिषेक किया गया
और जो संसाररूपी समुद्र से पार उतारने के लिए सेतुरूप है। 10. सो जयउ जस्स जम्माहिसेयपय-पूरपंडुरिजंतो। जणियहिमसिहरिसंको कणयगिरी राइओ तइया॥
- जंबूसामिचरिउ 1. मंगलाचरण 3-4 अर्थ - उन (महावीर भगवान) की जय हो जिनके जन्माभिषेक निमित्तक जलके पूर से पांडुवर्ण होता हुआ कनकाचल (सुवर्णगिरी मेरु) हिमगिरी की शंका उत्पन्न करता हुआ शोभायमान हुआ।
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[ निम्नलिखित छन्द पाठ्यक्रम से अतिरिक्त हैं । इन छन्दों में से परीक्षा में नहीं पूछा जायेगा। ज्ञानवर्धन के लिए विद्यार्थी पढ़ सकता है । ]
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छन्द [ खण्ड 2]
मात्रिक छन्द 1. रयडा
2. विलासिनी
4. निध्यायिका
5. चउपही (चतुष्पदी) 6. मदनावतार
7. सारीय
8. शशितिलक
9. मंजरी
11. शालभंजिका
13. कामलेखा
3. मत्तमातंग
वर्णिक छन्द 18.
15. आरणाल
17. तोमर
सोमराजी
20. समानिका
22. भुजंगप्रयात
मात्रिक छन्द
10. रासाकुलक
12. हेलाद्विपदी
14. दुवई
16. लताकुसुम
1. रयडा छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी ) । प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ
होती हैं।
19. स्रग्विणी
21. चित्रपदा
23. प्रमाणिका
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उदाहरणऽ । ।।। । । । ।।।। को वि भणइ ण वि लेमि पसाहणु।
। । ।। 5।। 5 ।। जाम ण भञ्जमि राहव-साहणु।।
पउमचरिउ 59.4.3 अर्थ- कोई बोला - मैं तब तक प्रसाधन ग्रहण नहीं करूँगा जब तक कि रावण की सेना को नष्ट नहीं करता। 2. विलासिनी छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं और चरण के अन्त में लघु (1) व गुरु (5) होता है। उदाहरणऽ। । ऽऽ ।ऽ।ऽ ।ऽ । ऽ ।।। ऽ।ऽ जंतु जंतु पत्तो मसाणए, घुरुहुरंतसंभडिय - साणए,
सुदंसणचरिउ 8.16.1 अर्थ- चलते-चलते सुदर्शन श्मशान में पहुँचा, जहाँ कुत्ते घुर्राते हुए भिड़ रहे थे। 3. मत्तमातंग छन्द . लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में अट्ठारह मात्राएँ होती हैं और चरण के अन्त में जगण (151) होता है। . उदाहरण
जगण
जगण.
ऽ ।ऽ । ऽऽ।।।। ।ऽ ऽ।ऽ ।। ।।। तो दिणे छट्ठि उक्किट्ठकमसेण, दाविया छट्ठियाज्झत्ति वइसेण।
सुदंसणचरिउ 3.5.6 .. अपभ्रंश अभ्यास सौरभ .
(41) (छंद एवं अलंकार)
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अर्थ- फिर जन्म से छठे दिन उस वैश्य ने उत्कृष्ट रूप से झटपट छठी का उत्सव मनाया। 4. निध्यायिका छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में उन्नीस मात्राएँ होती हैं। उदाहरण।।।।।। ।।।। ऽ । ऽ।ऽ फुरियाणणउ विहुणिय - वाहुदण्डओ। ऽ ।।।।। ।।।। । ऽ।ऽ णं गयवरउ णिठभर - गिल्ल - गण्डओ ।। ऽ ।।।।। ।।ऽऽ । ऽ । ऽ तं दहवयणु जयकारेवि अक्खओ। ऽ ऽ।।। ।।।। ।।। ऽ । ऽ णं णीसरिउ गरुडहाँ समुहु तक्खओ ।।
. पउमचरिउ 52.1.1 अर्थ - उसका चेहरा तम-तमा रहा था, अपने दोनों हाथ मलते हुए वह ऐसा लगता था मानो मद झरता हुआ महागज हो। रावण की जय बोलकर अक्षयकुमार निकल पड़ा, मानों गरुड़ के सम्मुख तक्षक ही निकला हो। 5. चउपही छन्द (चतुष्दी) लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में बीस मात्राएँ होती हैं और चरण के अन्त में दो मात्राएँ लघु (1) होती हैं। उदाहरणऽ । । ।।। ।।। ।।। ।। दोहिँ वि घरहिँ धवलु मंगलु गाइज्जइ। (42)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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ऽ। । ।।। ।।। ।।। 55।। दोहिँ वि घरहिँ गहिरु तूरउ वाइज्जइ।
। । ।।। ।।। ।।। ।।।। दोहिँ वि घरहिँ विविहु आहरणु लइज्जइ। ऽ । । ।।।।।।।।।। 55।। दोहिँ वि घरहिँ लडहतरुणिहिँ णच्चिज्जइ।
सुदंसणचरिउ 5.4.9-10 अर्थ- दोनों ही घरों में धवल मंगल गान होने लगे, दोनों ही घरों में गम्भीर तूर्य बजने लगा। दोनों ही घरों में विविध आभरण लिये जाने लगे। दोनों ही घरों में सुन्दर तरुणियों के नृत्य होने लगे। 6. मदनावतार छन्द . लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में बीस मात्राएँ होती हैं और चरण के अन्त में रगण (ऽ । ऽ) होता है। उदाहरण
रगण
ऽ।ऽ। । ।ऽ ।।। ऽऽ । ऽ रावणेण वि धणुं समरे दोहाइयं।
रगण si 5.51 ss 15515 ताम्व तं दन्द जुझं. समोहाइय।।
पउमचरिउ 66.8.5 अर्थ- रावण ने विभीषण के धनुष के दो टुकड़े कर दिए तब उन्होंने एकदूसरे को द्वन्द्व युद्ध के लिए सम्बोधित किया।
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
(43)
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7. सारीय छंद लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में बीस मात्राएँ होती हैं और अन्त में गुरु (5) व लघु (।) होता है।
उदाहरण
।।ऽ । ऽ । ऽ।।। ऽ ऽ । तिमिरं णियच्छेवि पंडिय गया तत्थ, .।। ।ऽऽ । ऽऽ।ऽ । थिउ झाणजोएण सेट्ठीसरो जत्थ ।
सुदंसणचरिउ 8.20.1 अर्थ- अन्धकार फैला देखकर पंडिता वहाँ गई जहाँ सेठों का अग्रणी सुदर्शन ध्यानयोग में स्थित था। 8. शशितिलक छंद लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में बीस मात्राएँ होती . हैं तथा सर्वत्र लघु (1) होता है। उदाहरण।। ।।। ।।।। ।।।।।। ।।।।। जय अणह चउदिसु वि पडिफुरिय चउवयण।
जय गलियमलपडल कमलदलसमणयण।।
सुदंसणचरिउ 1.11.3-4 अर्थ- हे भगवन, आप निष्पाप हैं और समवशरण के बीच चारों दिशाओं में आपके चार मुख दिखाई देते हैं। आपके कर्मरूपी मल का पटल विनष्ट हो गया है। आपके नेत्र कमलपत्र के सदृश सुन्दर हैं। (44)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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'
द
9. मंजरी छंद लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में इक्कीस मात्राएँ होती हैं। उदाहरण।।। ।। ऽ ऽ।। । । ।5 कहिउ सव्वु तं लक्खण - राम - कहाणउं । 5 ।। ।। । । ।।ऽ । ऽ दण्डयाइ मुणि - कोडि - सिला - अवसाणउं ।।
पउमचरिउ 45.6.1 अर्थ- उसने राम-लक्ष्मण की सब कहानी उन्हें सुना दी कि किस प्रकार दण्डकवन में उन्होंने कोटि शिला को उठा लिया। 10. रासाकुलक छंद लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में 21 मात्राएँ होती हैं और चरण के अन्त में नगण (II) होता है। उदाहरण
नगण ऽ ऽ ऽ। ।।। ।।। ।।। हा हा णाह सुदंसण सुंदर सोमसुह ।
नगण ।।। ।। । ।। ।।।।।।।। सुअण सलोण सुलक्खण जिणमइअंगरुह ।
सुदंसणचरिउ 8.41.1-2 अर्थ- हाय हाय नाथ, सुदर्शन, सुंदर, चन्द्रमा के समान सुखकारी, सुजन, सलोने, सुलक्षण, जिनमति के सुपुत्र..........। अपभ्रंश अभ्यास सौरभ .
(45) (छंद एवं अलंकार)
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11.शालभंजिका छंद लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं
और चरण के अन्त में लघु (।) व गुरु (5) होता है। उदाहरणऽ । ऽ । ऽऽ।। ।। ।। ऽ।ऽ ताव तेत्थु णिज्झाइय वावि असोय-मालिणी। . 5।। ।।।।। ।।।। ।। ऽ । ऽ . . हेमवण्ण स-पओहर मणहर णाइँ कामिणी।
पउमचरिउ 42.10.1 अर्थ- तब उसने 'अशोकमालिनी' नाम की बावड़ी देखी, सुनहले रंग से वह जैसे, स-पयोधर सुन्दर कामिनी हो। 12. हेलाद्विपदी छंद लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (सम द्विपदी)। प्रत्येक चरण में 22 मात्राएँ होती हैं और चरण के अन्त में दो गुरु (5's) होते हैं। उदाहरण।।। ।। । ।। ऽ।ऽ ।ऽऽ पइज करेवि जाम पहु आहवे अभङ्गो । ।। ।। ।। 55। ऽ।ऽऽ ताम पइट्ट चोरु णामेण विजुलङ्गो ।।
पउमचरिउ 25.2.1 अर्थ- जब युद्ध में वह अभग्न प्रभु यह प्रतिज्ञा कर रहा था कि तभी विद्युदंग चोर वहाँ प्रविष्ट हुआ।
(46)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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13. कामलेखा छंद
लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 27 मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण
||| ऽ । 11 ऽ ।
गयवर - तुरय - जोह रह - सीह
-
-
|| ऽ।। । ऽ।
||
||
TT
रण तूरइँ हयाइँ किउ कलयलु भिडियइँ
भिडियइँ
-
। ऽ।
। ऽ । ऽ ऽ
विमाण - पवाहणाइं।
अर्थ - उत्तम हाथी, अश्व, योद्धा, रथ, सिंह, विमान और दूसरे वाहन चल पड़े । युद्ध के नगाड़े बज उठे। कोलाहल होने लगा । सेनाएँ आपस में भिड़ गयीं।
14. दुवई छंद
लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (सम द्विपदी ) । प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं और चरण के अन्त में लघु ( 1 ) व गुरु (5) होता है।
उदाहरण
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
SISS
साहणाइं ।
पउमचरिउ 66.1.1
|| ऽ ।।
1
ऽ । ऽ । I । ऽ। । ऽ।
ऽ । ऽ
हिय एत्त वि सीय एत्तहें वि विओउ महन्तु राहवे ।
।।। ऽ।ऽ
।। ऽ।। │││ ऽ ।। I । ऽ।। हरि एत्त वि भिडिउ एत्त हे वि विराहिउ मिलिउ आहवे । पउमचरिउ 40.2.1
अर्थ- यहाँ सीता का अपहरण कर लिया गया और यहाँ राम को महान वियोग हुआ । यहाँ लक्ष्मण युद्ध में भिड़ गया और यहाँ युद्ध से विराधित मिला।
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(47)
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15. आरणाल छंद लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में 30 मात्राएँ होती हैं। उदाहरणऽ ।।ऽ।ऽ । ऽऽ।ऽ। ।। ।। ।। 55 भो भुवणेक्कसीह वीसद्ध जीह तउ थाउ एह बुद्धी। ऽ। ।।।। ऽ।ऽ ।।। ऽ।ऽ ।।। ... ऽऽ अज्जु वि-विगय णाम णं समउ रामेणं कुणहि गम्पि संधी।
पउमचरिउ 53.1.1 अर्थ- हे भुवनैकसिंह, विश्रब्धजीव! तुम्हारी यह क्या मति हो गई है? आज भी प्रसिद्धनाम राम के पास जाकर संधि कर लो। 16. लताकुसुम छंद लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में 30 मात्राएँ होती हैं और चरण के अन्त में सगण (15) होता है।
उदाहरण
सगण
ऽ। ।ऽ ।।।। । । । ।। 5 ।।5।।ऽ जत्थ सिरी अणुहुत्त तहिं पि कयं पुण भिक्खपवित्थरणं।
सगण ऽ। । ऽऽ ।ऽ । । ।। ।।ऽ । ।।।। लोहु ण लजं भयं ण वि गारउ पेम्मसमं पि तवचरणं।
सुदंसणचरिउ 11.2.3-4 अर्थ- जहाँ पर उन्होंने राज्यश्री का उपभोग किया था, वहीं पर अब भिक्षाचरण
(48)
• अपभ्रंश अभ्यास सौरभ
(छंद एवं अलंकार)
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किया। उनके न लोभ था, न लज्जा, न भय और न अभिमान। उनको यदि प्रेम था तो तपश्चर्या से। 17. तोमर छंद लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में चार बार गुरु (5) व चार बार लघु (1) आता है। गल 5 I SISI SI SISI SISI के वि णीसरन्ति वीर, भूधर व्व तुङ्ग धीर।
पउमचरिउ 59.2.2 अर्थ- पहाड़ की भाँति ऊँचे और धीर कितने ही योद्धा निकल पड़े।
वर्णिक छन्द 18. सोमराजी छन्द लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में 6 वर्ण व दो यगण (155) होते हैं। उदाहरणयगण यगण यगण यगण Is siss iss Iss णिवो सोयभिण्णो, थिओ जा विसण्णो । 12 3 4 5 6 12 3 4 5 6 यगण . 'यंगण यगण यगण ।।55 । ऽ ।ऽऽ ।ऽऽ सुरो को वि धण्णो, णहाओ पवण्णो । 1 2 3 4 5 6 1 2 3 4 5 6
करकंडचरिउ 4.16. 1-2 अर्थ- इस प्रकार शोक से विह्वल विषादयुक्त हुआ राजा जब वहाँ बैठा था, अपभ्रंश अभ्यास सौरभ
(49) . (छंद एवं अलंकार)
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तभी कोई एक पुण्यवान देव आकाश से वहाँ आ उतरा। 19. स्रग्विणी छन्द लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में 4 रगण (ऽ । ऽ) और बारह वर्ण होते हैं। उदाहरण
रगण रगण रगण रगण ऽ । ऽऽ। ऽऽ। ऽऽ । ऽ के वि रोमंच - कंचेण संजुत्तया, 1 2 3 4 5 6 7 8 9101112
रगण रगण रगण रगण ऽ । ऽऽ। ऽऽ। ऽऽ । ऽ के वि सण्णाह - संबद्ध - संगत्तया । 1 2 3 4 5 6 7 8 9101112
रगण रगण रगण रगण s. i 551 5515 515 के वि संगाम - भूमीरसे रत्तया, 1 2 3 4 5 6789 101112 रगण रगण रगण रगण SIS 51 551 5515 सग्गिणी - छंद - मग्गेण संपत्तया। 1 2 3 4 5 678 9101112
करकंडचरिउ 3.14. 7-8 अर्थ- कितने ही रोमांचरूपी कंचुक से संयुक्त थे और कितने ही अपने गात्र पर सन्नाह बांधकर तैयार थे। कितने ही संग्रामभूमिरस से रत होकर स्वर्ग पाने के
करत
(50)
अपश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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इच्छित मार्ग से आ पहुँचे। इस कडवक की रचना स्रग्विणी छंद में हुई है। 20. समानिका छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में क्रमशः रगण (ड। 5), जगण (151), गुरु (5), लघु (।) आते हैं व आठ वर्ण होते हैं। उदाहरणरगण जगण ग ल रगण जगण गल ऽ ।ऽ । ऽ । ऽ।ऽ ।ऽ। । मे कणिटु भाइ एक्कु, मंडलं तरम्मि थक्कु । 1 234 5 6 7 8 1 2 3 4 5 6 7 8 रगण जगण ग ल · रगण जगण गल 5 ।। । । । । । । वच्छरेसु आउ अज्जु, जाणिऊण तुज्झ कज्जु ।। 12345678 12 34 5 6 78
जंबूसामिचरिउ 9.17. 9-10 अर्थ- मेरा एक कनिष्ठ भाई जो तभी से देशान्तर में रहता था, वह आज तेरा विवाह कार्य जानकर (आया है)। 21: चित्रपदा छन्द लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में दो भगण (5 ।।) और दो गुरु (s 5) होते हैं व आठ वर्ण होते हैं। उदाहरण
(51)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ . (छंद एवं अलंकार)
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भगण भगण गु.गु. भगण भगण गु.गु. . 5।। ।। 55 5।।5।। 55 खेयरु हूयउ कीरो, पव्वयमत्थय - धीरो। 123 4 56 78 12 34 56 78 भगण भगण गु.गु. भगण भगण गु.गु. 5।।। ।। ।। ।। 55 भोयसएहिँ णभग्गो, कंतहे णेहइँ लग्गो। .... 123 4 5 678 12 3 4 56 78
करकंडचरिउ 8.3.1-2 अर्थ- वह खेचर एक पर्वत के मस्तक (शिखर) पर धैर्यवान सुआ हुआ। वह आकाश में उड़ता हुआ अपनी कान्ता के स्नेह में लगकर सैकड़ों भोगों सहित (सुख से रहता हुआ दीर्घकाल तक भोग भोगता रहा)। 22. भुजंगप्रयात छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में 12 वर्ण और चार यगण (155) आते हैं। उदाहरणयगण यगण यगण यगण ।ऽ ऽ । ऽऽ ।ऽऽ।ऽऽ भडो को वि दिट्ठो परिच्छिन्न गत्तो, 1 2 3 4 56 78910 1112 यगण यगण यगण यगण । ऽ ऽ ।ऽऽ ।ऽऽ ।ऽऽ स-दन्ती स-मन्ती स-चिन्धो स-छत्तो । 1 2 3 4 56 7 8 9 101112 यगण यगण यगण यगण
12 " विधि ,
(52)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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।ऽ ऽ ।ऽऽ। 55। 55 भडो को वि वावल्ल - भल्लेहँ भिण्णो, 1 2 3 4 5678910 11 12 यगण यगण यगण यगण ।ऽ ऽ । ऽऽ।ऽ । 55 भडो को वि कप्पदुमो जेम छिण्णो। 1 2 3 4 5 6 7 8 910 1112
पउमचरिउ 40.3.2-3 अर्थ - कोई सुभट अपने हाथी, मन्त्री, चिह्न और छत्र के साथ छिन्न-शरीर दिखाई दिया। कोई योद्धा बावल्ल और भालों से विदीर्ण हो गया। कोई भट कल्पवृक्ष की तरह छिन्न हो गया। 23. प्रमाणिका छन्द लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में आठ वर्ण क्रमशः जगण (151), रगण ( 5। 5), लघु (।), गुरु (5) आते हैं। उदाहरणजगण रगण ल.ग. जगण रगण ल.ग. । 5 ।ऽ ।ऽ।ऽ ।ऽ। ऽ । ऽ।ऽ पहन्तरे भयङ्करो, झसाल - छिण्ण - कक्करो । 12345678 12 3 4 5 678 जगण रगण ल.ग. जगण रगण ल.ग. । । 5 515 ।ऽ ।ऽ ।ऽ।ऽ वलोव्व सिङ्ग-दीहरो, णियच्छिओ महीहरो । 123 4 5 678 1 2 3 4 5 6 7 8
पउमचरिउ 32. 3. 1-2 अर्थ - पथ के भीतर उन्होंने भयंकर झसालों से छिन्न और कठोर महीधर देखा जो बैल के समान शृंगों (सींगों और शिखरों) से दीर्घ था।
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ . (छंद एवं अलंकार)
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अभ्यास (क) निम्नलिखित पद्याशों के मात्राएँ लगाकर इनमें प्रयुक्त छन्दों
के लक्षण व नाम बताइए - 1. तो फुरन्त-रत्तन्तलोयणो, कलि-कियन्तकालो व्व भीसणो।।
पउमचरिउ 23.8.1 अर्थ - तब जिसके फड़कते हुए लाल-लाल नेत्र थे, जो कलि-कृतान्त
और काल की तरह भीषण था। 2. अट्ठ दो दिवह वोलीण छुडु जाय, ताम जा णाम जिणयासि सणुराय।
सुदंसणचरिउं 3.5.7 अर्थ - जब आठ और दो अर्थात् दस दिन व्यतीत हुए तब उस पुत्र की
जिनदासी नामकी माता अनुरागसहित....। 3. दोहिँ वि घरहिँ घुसिणछडउल्लउ दिज्जइ '
दोहिँ वि घरहिँ रयणरंगावलि किज्जइ। दोहिँ वि घरहिँ धवलु मंगलु गाइज्जइ दोहिँ वि घरहिँ गहिरु तूरउ वाइज्जइ ।।
सुदंसणचरिउ 5.4.7-8 अर्थ - दोनों ही घरों में केसर की छटाएँ दी गईं। दोनों ही घरों में रत्नों
की रंगावलि की गई। दोनों ही घरों में मंगल गान गाये गये। दोनों
ही घरों में गंभीर तूर्य बजने लगा। 4. दुरियाणण-दुस्सर-दुव्विसहा, ससि-सूर-मऊर-कुरूर-गहा।
पउमचरिउ 59.6.4 अर्थ - दुरितानन, दुर्गम्य और असह्य, चन्द्रमा, सूर्य, मऊर और कुरुर
ग्रह भी निकल आये।
(54)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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5. हीण दीण हउँ बंभिणि सुगुणसुबुद्धिवजिया। अप्पसुओ आहाणउ णिसुणंती ण लज्जिया।।
सुदंसणचरिउ 7.12.5-6 अर्थ - मैं एक हीन-दीन, सद्गुणों और सद्बुद्धि से वर्जित ब्राह्मणी हूँ।
इसी से अपनी कान-सुनी बात सुनते मुझे लज्जा (शंका) नहीं
आई। 6. कालि-वन्दणहरा कन्द-भिण्णञ्जणा। सम्भु णल विग्घ-चन्दोयराणन्दणा।।
पउमचरिउ 66.8 8 अर्थ - कालि और वन्दनगृह, कन्द और भिन्नांजन, शंभू और नल, विघ्न
और चन्द्रोदर पुत्र ......। 7. सेसिउ हासु सुखेडपलोयणु संगु सपुवरईभरणं । होरु सुडोरु सुकंकणु कुंडलु सेहरु लेइ ण आहरणं ।।
सुदंसणचरिउ 11.2.19-20 अर्थ - उन्होंने हास्य-रतिपूर्वक अवलोकन, परिग्रह, अपनी पूर्व रति के
. स्मरण का परित्याग कर दिया है। वे अब सुन्दर लड़ियोंयुक्त हार,
- सुन्दर कंकण, कुण्डल व शेखर आदि आभरण धारण नहीं करते। 8. तओ पेल्लियं झत्ति जाणेण जाणं, गइंदेण अण्णं गइंदं सदाणं। - तुरंगेण मग्गम्मि तुंगं तुरंगं, भुयंगं भुयंगेण वेसासु रंग।
जंबूसामिचरिउ 4.21.13-14 अर्थ - तब झटपट यान से यान भिड़ गया व हाथी से दूसरा मदमत्त
हाथी। मार्ग में तुरंग से ऊँचा (बलिष्ठ तुरंग) वेश्याओं में आसक्त, जार से जार।
(55)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ . (छंद एवं अलंकार)
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9.
अर्थ - किसने सुमेरु पर्वत को चलायमान किया है? किस मूर्ख ने कालानल को प्रज्ज्वलित किया है? कौन ऐसा है जो सूर्य के रथ को रोक? और कौन है वह जो इस मनानन्ददायी विमान को रोके?
10. पहुत्तो अणंतो, पुलिंदेण जित्तो । भएणं पणट्ठो, णिओ ताम रुट्ठो । ।
केण णिव्वाणसेलो समुच्चालिओ, केण मूढेण कालाणलो जालिओ । कोणिरुंभेइ चंडसुणो संदणं, को विमाणं पि एयं मणानंदणं ।। सुदंसणचरिउ 11.14.9-10
सुदंसणचरिउ 10.5.6-7
अर्थ - अनंत सेनापति वहाँ पहुँचा । किन्तु पुलिन्द ने उसे जीत डाला। अनंत भयभीत होकर भाग आया। तब राजा रुष्ट हुआ ।
(ख) निम्नलिखित पद्याशों के मात्राएँ लगाकर इनमें प्रयुक्त छन्दों के लक्षण व नाम बताइए -
1.
2.
पउमचरिउ 59.4.6
अर्थ - किसी एक ने कहा- मैं तब तक अपनी आँखों में अञ्जन नहीं लगाऊँगा जब तक कि सुरवधुओं के नेत्रों का रंजन नहीं करता ।
(56)
को वि भणइ उ णयणइँ अञ्जमि । जाम्व व सुरवहु-जण- मणु रञ्जमि ।।
जं जाणियउ अक्खउ रणे रस - सहिउ । रहु सारहिण हणुवह सम्मुहु वाहिउ ।। ढुक्कन्तु रणे तेण वि दिट्टु केहउ । रयणायरेण गङ्गा - वाहु जेहउ ।।
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पउमचरिउ 52.3.1
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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अर्थ - जब सारथी ने यह देखा कि कुमार अक्षय रणरस (वीरता) से
भरा हुआ है तो उसने हनुमान के सम्मुख रथ बढ़ा दिया। रणस्थल में पहुँचते ही हनुमान ने उसे इस प्रकार देखा मानो समुद्र ने गंगा के प्रवाह को देखा हो। जय विगयभय विसयरइजलणणवजलय। जय सहसयरसरिसपरिफुरियजुइवलय।।
सुदंसणचरिउ 1.11.9-10 अर्थ - आप भयरहित हैं और विषयों के राग की अग्नि को नये मेघ के
समान वमन करनेवाले हैं। आपका प्रभामण्डल सूर्य के सदृश स्फुरायमान है। परधण-परकलत्त-परिसेसहुँ परवल-सण्णिवायहुं। एक्के लक्खणेण विणिवाइय सत्त सहास रायहुं ।।
पउमचरिउ 40.4.1 अर्थ - परधन और परस्त्रियों को समाप्त करनेवाले शत्रु-सैन्य के लिए : सन्निपात के समान सात हजार राजाओं के सैन्य को अकेले
लक्ष्मण ने मार गिराया। 5. पच्छएँ मेहवाहणो गहिय-पहरणो णिग्गओ तुरन्तो। णं जुअ-खएँ सणिच्छरो भरियमच्छरो अहर-विप्फुरन्तो।
. - पउमचरिउ 53.4.1 अर्थ - उसके पीछे अस्त्र लेकर मेघवाहन भी तुरन्त निकल पड़ा मानो
युग का क्षय होने पर मत्सर से भरा कम्पिताधर शनैश्चर ही हो। सुमरमि णवकोमलदलकुवलयताडणउ। मुत्ताहलहारावलिबंधणछोडणउ ।
सुदंसणचरिउ 8.41.9-10
(57)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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7.
लाक्ष
अर्थ - स्मरण आता है वह नये कोमल पत्रों से युक्त नीलकमल द्वारा
ताड़न तथा मुक्ताफलों की छटावली का बाँधना और तोड़ना। लच्छिभुत्ति तं लच्छीणयरु पईसई। ववहरन्तु जं सुन्दरु तं तं दीसई ।।
पउमचरिउ 45.4.1 अर्थ - लक्ष्मीभुक्ति उस नगर में प्रवेश करता है और घूमते हुए जो-जो
- सुन्दर है उसे देखता है। 8. कहिं जि दिट्ठ-छारया, लवन्त मत्त-मोरया। कहिं जि सीह-गण्डया, धुणन्त-पुच्छ-दण्डया।।
पउमचरिउ 32.3.5-6 अर्थ - कहीं पर भालू दिखायी दे रहे थे और कहीं पर बोलते हुए मस्त
मोर। कहीं पर अपने पूंछ-रूपी दण्डों को धुनते हुए सिंह और
गैंडे थे। 9.
नंदणो मुणेवि माय, कारणेण केण आय। आनमंसियं पयाइँ, पुच्छइ त्ति अम्मि काइँ।
___जंबूसामिचरिउ 9.17.5-6 अर्थ – किसी कारण से माँ को आयी जानकर पुत्र ने माँ के पैरों को
नमस्कार करके पूछा - माँ क्या बात है? 10. अच्छइ जाव सुहेणं, भुंजइ भोय चिरेणं। ताव सधम्मु सुसीलो, मत्तयकुंजरलीलो।।
करकंडचरिउ 8.3.3-4 अर्थ - सुख से रहता हुआ दीर्घकाल तक भोग भोगता रहा। तब एक,
धर्मवान, सुशील, मत्त कुंजर के समान लीला करता हुआ..............।
(58)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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(ग) निम्नलिखित पद्याशों के मात्राएँ लगाकर इनमें प्रयुक्त छन्दों
के लक्षण व नाम बताइए - 1. म चिराहि ए एहि उम्मीलणेत्ताइँ, लहु गंपि आलिंगि सोमालगत्ताइँ।
सुदंसणचरिउ 8.20.5 अर्थ - आओ, आओ, शीघ्र चलकर उस उन्मीलित नेत्र सुकुमारगात्री
का आलिंगन करो। 2. पुच्छिउ वजयण्णे ण हसेवि विजुलङ्गो।। भो भो कहिँ पयट्ट वहु-वहल-पुलइयङ्गो।।
पउमचरिउ 25.3.1 अर्थ - वज्रकर्ण ने हँसकर विद्युदंग से पूछा - अरे-अरे, अत्यन्त पुलकित
अंग तुम कहाँ जा रहे हो? .. अमरिस-कुद्धएण अमर-वरङ्गण-जूरावणेणं। णिब्भच्छिउ विहीसणो पढम-भिडन्तें रावणेणं ।।
पउमचरिउ 66.6.1 अर्थ - देवांगनाओं को सतानेवाले रावण ने क्रोध से भरकर पहली ही .. भिड़न्त में विभीषण को ललकारा। 4. के वि सामि-भत्ति-वन्त, मच्छरग्गि-पज्जलन्त।
पउमचरिउ 59.2.5 अर्थ - स्वामी की भक्ति से परिपूर्ण वे ईर्ष्या की आग में जल रहे थे। 5. गुणाणं णिवासो, दुहाणं विणासो। विरायं हणंतो, सरायं जणंतो।
करकंडचरिउ 4.16.3-4
.. (59)
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ
(छंद एवं अलंकार)
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अर्थ - वह गुणों का निवास और दुःखों का विनाश था एवं विराग का हन्ता और सराग का जनक ।
6.
अर्थ - मंत्री के चित्त को वह अत्यन्त भाया । उसके तेज को सूर्यताप तथा वेग को वायु भी नहीं पाते थे। जब वह भूमिगृह (घुड़साल) में बाँधा हुआ रहता था तब एक सुआ उसे स्वच्छन्द भाव से देखा करता था।
7.
8.
मंति चित्तस्स अच्वंतु सो भाविओ, सूरतावेण वाएण णे पाविओ । भूमिगेहम्मि जा बद्धओ अच्छए, सग्गिणीछंदकीरो वि तं पेच्छए । करकण्डचरिउ 8.2.7-8
पउमचरिउ 32.3.3 -4
अर्थ - जो कहीं पर भीम गुफाओं वाला और कहीं पर झरते हुए जल से युक्त निर्झरवाला था । कहीं पर रक्त, चंदन, तमाल, ताल और पीपल के वृक्ष थे।
1.
कहिं जि भीमकन्दरो, झरन्त - णीर- णिज्झरो । कहिं जि रत्तचन्दणो, तमाल-ताल - वन्दणो ।
(60)
करकण्डचरिउ 8.3.5-6
अर्थ - प्रबल और दीर्घ भुजाओं से युक्त, एक सुन्दर गोधननाथ (ग्वाला) उस वन में आया वह जब वहाँ बैठा हुआ था ।
(घ) निम्नलिखित पद्यों के मात्रा लगाकर इनमें प्रयुक्त छन्दों के लक्षण व नाम बताइए -
चउ - दुवार - चउ गोउर- चउ-तोरण- रवण्णिया । चम्पय-तिलय-वउल-णारङ्ग-लवङ्ग- छण्णिया ।।
पीवरदीहरबाहो, सुंदरु गोहणणाहों । तेत्थ वणम्मि पवण्णो, चेटुइ जाव णिसण्णो ।
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पउमचरिउ 42.10.2
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ
(छंद एवं अलंकार)
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अर्थ - वह चार द्वारों, चार गोपुरों और चार तोरणों से सुन्दर थी, चम्पक,
तिलक, बकुल, नारंग और लवंग वृक्षों से आच्छादित थी। 2. कुमुअ-महकाय सर्ल-जमघण्टया। रम्भ-विहि मालि-सुग्गीव अब्भिट्टया।।
पउमचरिउ 66.8.10 अर्थ - कुमुद और महाकाय, सार्दूल और यमघंट,रंभ और विधि, माली
और सुग्रीव एक-दूसरे से जाकर भिड़ गये। 3. लच्छिभुत्ति पभणिउ सुहि-सुमहुर-वायए। एउ सव्वु किउ सम्वुकुमारहों मायए।।
पउमचरिउ 45.9.1 अर्थ – तब लक्ष्मीभुक्ति दूत ने अत्यन्त श्रुतिमधुर वाणी में कहा, यह सब
शम्बूकुमार की माँ ने किया है। 4. सुमरमि सुरहियकेसरणियरे पिंजरिय। सुइपूरण किय सभसलसुरतरुमंजरिय।।
सुदंसणचरिउ 8.41.15-16 अर्थ - स्मरण करता हूँ सुगंधि केसर-पिंड से अपना पिंगलवर्ण किया
जाना तथा भौंरों से युक्त कल्पवृक्ष की मंजरी के कर्णपूर बनाकर
पहनाये जाना। 5. अहंवइ काइँ एण वहु जम्पिएण राया। पर-वले पेक्खु पेक्खु उट्ठन्ति धूलि छाया।।
पउमचरिउ 25.4.1 अर्थ - अथवा अधिक कहने से हे राजन्, क्या? देखो, देखो शत्रु-सेना
से धूल की छाया उठ रही है।
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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6. रावण रामकिङ्करा रणे भयङ्करा भिडिय विप्फुरन्ता। विडसुग्गीव-राहवा विजयलाहवा णाइँ हणु भणन्ता।।
पउमचरिउ 53.8.1 अर्थ - तब युद्ध में भीषण, तमतमाते हुए, राम और रावण के वे दोनों . अनुचर भिड़ गये। मानो विजय के लिए शीघ्रता करनेवाले माया
सुग्रीव और राम ही मारो-मारो कह रहे हो। 7.. खुर-खर छज्जमाणु णं णासइ भइयएँ हयवराहुँ। णं आइउ णिवारओ णं हक्कारउ सुरवराहुं ।।
- - पउमचरिउ 66.2.1 अर्थ - खुरों से खोदी हुई धूल मानो महाअश्वों के डर से नष्ट हो रही
थी। वहाँ से हटाई जानेपर मानो वह देवताओं से पुकार करने जा
रही हो। 8. सा वि जोइया णिवेण, णाणसायरं गएण। तम्मि दिट्ट हेमकंतु, अंगुलीउ णामवंतु।
. करकंडचरिउ 1.7.5-6 अर्थ - तब ज्ञान के सागर तक पहुँचे हुए उस राजा ने उस पिटारी को
जोहा (ध्यान से देखा) उसमें देखा कि स्वर्णमयी अंगुली की मोहर लगी है जिस पर नाम भी लिखा है। चावहत्था पसत्था रणे दुद्धरा, धाविया ते णरा चारुचित्ता वरा। के वि कवेण धावति कप्पंतया, के वि उग्गिण्णखग्गेहिँ दिप्पंतया।।
करकंडचरिउ 3.14.5-6 अर्थ - वे प्रशस्त रण में दुर्द्धर नर प्रसन्नचित्त होकर हाथों में धनुष लिये
दौड़े। कितने ही कोप से काँपते हुए और कितने ही उघाड़े हुए खड्गों से दीप्तिमान होते हुए दौड़े।
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