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________________ अर्थ - वह चार द्वारों, चार गोपुरों और चार तोरणों से सुन्दर थी, चम्पक, तिलक, बकुल, नारंग और लवंग वृक्षों से आच्छादित थी। 2. कुमुअ-महकाय सर्ल-जमघण्टया। रम्भ-विहि मालि-सुग्गीव अब्भिट्टया।। पउमचरिउ 66.8.10 अर्थ - कुमुद और महाकाय, सार्दूल और यमघंट,रंभ और विधि, माली और सुग्रीव एक-दूसरे से जाकर भिड़ गये। 3. लच्छिभुत्ति पभणिउ सुहि-सुमहुर-वायए। एउ सव्वु किउ सम्वुकुमारहों मायए।। पउमचरिउ 45.9.1 अर्थ – तब लक्ष्मीभुक्ति दूत ने अत्यन्त श्रुतिमधुर वाणी में कहा, यह सब शम्बूकुमार की माँ ने किया है। 4. सुमरमि सुरहियकेसरणियरे पिंजरिय। सुइपूरण किय सभसलसुरतरुमंजरिय।। सुदंसणचरिउ 8.41.15-16 अर्थ - स्मरण करता हूँ सुगंधि केसर-पिंड से अपना पिंगलवर्ण किया जाना तथा भौंरों से युक्त कल्पवृक्ष की मंजरी के कर्णपूर बनाकर पहनाये जाना। 5. अहंवइ काइँ एण वहु जम्पिएण राया। पर-वले पेक्खु पेक्खु उट्ठन्ति धूलि छाया।। पउमचरिउ 25.4.1 अर्थ - अथवा अधिक कहने से हे राजन्, क्या? देखो, देखो शत्रु-सेना से धूल की छाया उठ रही है। (61) अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004210
Book TitleApbhramsa Abhyas Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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