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10. सिणिद्धरुक्खपुप्फरेणुपिंजरं फलोवडंतवुक्करंतवाणरं।
जसहरचरिउ 3.16.5 अर्थ - वह वृक्षों को चिकनी पुष्परेणु से लाल हो रहा था, बुक्क ध्वनि
करते हुए वानर फलों के ऊपर झपट रहे थे।
पणट्ठदेसु सुक्कलेसु संजमोहवित्तओ। .. तिलोयबंधु णाणसिंधु भव्वकंजमित्तओ।।
अलंघसत्ति बंभगुत्ति सुप्पयत्त रक्खणो। जिणिंदउत्त-सत्ततत्त-ओहिणाण-अक्खणो।।
सुदंसणचरिउ 10.3.10-13 अर्थ - उनका द्वेष नष्ट हो गया था, शुक्ल लेश्या प्रकट हो गई थी और
वे संयमों के समूहरूप धन के धारी थे (अर्थात् बड़े तपोधन थे), वे त्रैलोक्य बन्धु थे, ज्ञान-सिन्धु व भव्यरूपी कमलों के मित्र (सूर्य समान हितैषी) थे। वे अलंघ्य शक्ति के धारी थे, ब्रह्मयोगी
थे, प्रयत्नपूर्वक जीवों की रक्षा करनेवाले थे एवं जिनेन्द्र द्वारा . कहे गये सात तत्त्वों का अवधिज्ञान-पूर्वक भाषण करनेवाले थे। (ग) निम्नलिखित पद्यों के मात्राएँ लगाकर इनमें प्रयुक्त छन्दों के
लक्षण व नाम बताइए - 1. रिउमारणिया, णिद्दारणिया। . महिदारणिया, णहचारणिया।
णायकुमारचरिउ 6.6.14-15 अर्थ - रिपुमारणिका, निर्दारणिका, महिदारणिका, णभचारणिका। 2. तं जो घोट्टइ, सो णरु लोट्टइ। ... गायइ णच्चइ, सुयणइँ जिंदइ।
सुदंसणचरिउ 6.2.5-6
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ . (छंद एवं अलंकार)
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