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________________ अर्थ - ज्ञानी इस परिस्थिति को उदयागत भावों (कर्मों) के अनुसार (नवीन) कर्मास्रव के बिना, परद्रव्य ( में आसक्ति) को छोड़कर भोगता है और यही भाव (विवेक) संसाराभाव अर्थात् मोक्ष का कारण है। 2. 3. ता तहिँ मंडवें थक्कयं, दिठ्ठे सेट्ठिचउक्कयं । तोरणदारपराइया, तेहिँ मि ते वि बिहाइया । । अर्थ - तब ( इन दोनों पुरुषों ने वहाँ जाकर ) मण्डप में बैठे हुए चारों श्रेष्ठियों को देखा और तोरणद्वार पार करते ही वे दोनों भी उन श्रेष्ठियों के द्वारा देखे गए। 4. इँ विणु को हय - गहुँ चडेसइ, पइँ विणु को झिन्दुऍण रमेस । पइँ विणु को पर-वलु भजेसइ, पइँ विणु को मइँ साहारेसइ ।। पउमचरिउ 23.4.8, 10 अर्थ - तुम्हारे बिना अंश्व और गज पर कौन चढ़ेगा? तुम्हारे बिना कौन गेंद से खेलेगा? तुम्हारे बिना कौन शत्रु सेना का नाश करेगा ? तुम्हारे बिना कौन मुझे सहारा देगा ? उम्मोहणिया, संखोहणिया । अक्खोहणिया, उत्तारणिया । जंबूसामिचरिउ 8.9.1-2 कुंटिउ मंटिउ, मोट्टिउ छोट्टिउ । बहिरिउ अंधिउ, अइदुग्गंधिउ । अर्थ- उम्मोहणिका, संक्षोभणिका, अक्षोभणिका, उत्तरणिका । 5. अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार) णायकुमारचरिउ 6.6.11-12 सुदंसणचरिउ 6.15.9-10 अर्थ - वे ठूंठी, लंगडी, मोटी, छोटी, बहरी, अन्धी, अतिदुर्गन्धी होती हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only (21) www.jainelibrary.org
SR No.004210
Book TitleApbhramsa Abhyas Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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