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5. अवि य- अकत्तिए निरंतरंतरं, हुयं निरब्भमबरंवरं । अपाउसे असारयं रयं, धरायले व्व निक्खयं खयं ॥
जंबूसामिचरिउ 4.8.12-13 अर्थ - और भी - कार्तिक नहीं होने पर भी आकाश निरतिशयरूप से अभ्रमुक्त हो गया, तथा वर्षाकाल नहीं होने पर भी असार (क्षुद्र) रज मान धरातल में पूर्ण उपराम को प्राप्त हो गया ।
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6. किं लक्खणु जं पाइय कव्वहो, किं लक्खणु वायरणहों सव्वहो । किं लक्खणु जं छन्दे णिदिट्ठउ, किं लक्खणु जं भरहे गविट्ठउ ॥
- पउमचरिउ 44.3.2-3
अर्थ - (लक्ष्मण के आगमन की सूचना पाकर सुग्रीव का प्रतिहारी से प्रश्न) क्या वह लक्षण जो प्राकृत काव्य में होता है ? क्या वह लक्षण जो व्याकरण में होता है? क्या वह लक्षण जो छन्दशास्त्र में निर्दिष्ट है ? क्या वह लक्षण जो भरत की गोष्ठी में काम आता है?
7. कवि चाहइ सारुणकोमलाहँ, अंतरु रत्तुप्पल करयलाहँ । तहिँ एत्तहे तेत्तहे भमरु जाइ, कत्थई छप्पउ वि दुचित्तु भाइ ॥ - सुदंसणचरिउ 7.14.4-5 अर्थ- कोई अरुण और कोमल रक्तोत्पलों और अपने करतलों में भेद जानना चाहती थी । वह भ्रमर कभी इस ओर, कभी उस ओर जा रहा था। इस प्रकार कहीं षट्पद भी दुविधा में पड़ा प्रतीत होता था ।
8. रिसि रुक्ख व अविचल होवि थिय, किसलए परिवेढावेढि किय । रिसि रुक्ख व तवणताव तविय, रिसि रुक्ख व आलवाल रहिय ॥ • पउमचरिउ 33. 3. 4-6
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अर्थ - मुनि वृक्ष की तरह अविचल होकर स्थित हो गए, किसलयों ने उन्हें ढक लिया। मुनि वृक्ष के समान तपन के ताप वृक्ष की तरह आलबाल परिग्रह / क्यारी से रहित थे ।
से सन्तप्त थे, मुनि
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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