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अर्थ - आज अकाल अर्थात बिना ऋतु के ही समस्त वनस्पति हरीभरी हो उठी है और वह अभिनव पत्रों, पुष्पों व फलों से समृद्ध हो गयी है। आज ऐसा सुगन्धित शीतल व सघन वायु बह रहा है जिसने सारे
कानन को पूर दिया है। 4.णं कामभल्लि णं कामवेल्लि , णं कामहो केरी रइसुहेल्लि। णं कामजुत्ति णं कामवित्ति , णं कामथत्ति णं कामसत्ति॥ .
- णायकुमारचरिउ 1.15.2-3 अर्थ - वह कन्या तो जैसे काम की भल्ली, काम की लता, काम की सुखदायक रति, काम की युक्ति, काम की वृत्ति, काम की ढेरी एवं
काम की शक्ति जैसी दिखाई देती है। 5.किं पीइ रई अह खेयरिया , किं गंग उमा तह किण्णरिया। आयण्णेवि जंपइ ता कविलो, हे सुहि मत्तउ किं तुहुँ गहिलो॥ :
- सुदंसणचरिउ 4.4.5-6 अर्थ - क्या यह प्रीति है, या रति, या खेचरी? क्या यह गंगा, उमा अथवा कोई किन्नरी है? अपने मित्र की यह बात सुनकर कपिल बोला हे मित्र तुम नशे में हो, या किसी ग्रह के वशीभूत? 6.न मुणइ रत्ताहररंगगुणु , जा छोल्लइ सुद्ध वि दंत पुणु।
_ - जंबूसामिचरिउ 5.2.18 अर्थ - जो अपने रक्तिम अधरों के गहरे रंग के प्रतिबिंब को न समझ
सकने के कारण अपने स्वच्छ दाँतों को बार-बार छीलती हैं। 7.वणं जिणालयं जहा स-चन्दणं, जिणिन्द-सासणं जहा स-सावयं। महा-रणड्.गणं जहा स-वासणं, मइन्द-कन्धरं जहा स-केसरं॥
- पउमचरिउ 24.14.3-4 अर्थ - वह वन जिनालय की तरह चन्दन (चन्दनवृक्ष, चन्दन) से
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अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
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