Book Title: Apbhramsa Abhyas Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 31
________________ अर्थ - इसे जो पीता है, वह मनुष्य (उन्मत्त होकर) लोटता है, गाता है, नाचता है, सज्जनों की निन्दा करता है। 3. जसु रूउ णियंतउ सहसणेत्तु, हुउ विभियमणु णउ तित्ति पत्तु । जसु चरणंगुठे सेलराइ, टलटलियउ चिरजम्माहिसेइ । सुदंसणचरिउ 1.1.5-6 अर्थ - जिनके रूप को देखते हुए इन्द्र विस्मित मन हो गया और तृप्ति को प्राप्त न हुआ। जिनके जन्माभिषेक के समय चरणांगुष्ठ से शैलराज सुमेरु भी चलायमान हो गया। आणंदरूउ मणजोय,हो जइ तो रमणिजोउ पवरु। विणु मोक्खें सोक्खघव, क्कउ पच्चक्षु जि पावेइ णरु। जंबूसामिचरिउ 9.2.12-13 अर्थ - यदि मनोयोग (अर्थात् चित्त-वृत्तियों का निरोध व ध्यानसमाधि) का स्वरूप आनन्दमय है तो उससे श्रेष्ठ तो रमण योग हैं जिससे पुरुष मोक्ष के बिना ही प्रत्यक्ष सुख की अनुभूति पा लेता है। 5. ता कुलकारिणा, णायवियारिणा। सुहहलसाहिणा, भणियं णाहिणा। महापुराण 4.8.1-2 अर्थ - तब न्याय का विचार करने वाले शुभफल के वृक्ष कुलकर स्वामी (नाभिराज) ने कहा। कज्जलसामलो, उडुदसणुज्जलो। पत्तउ भीयरो, तमरयणीयरो। महापुराण 4.16.1-2 अर्थ - तब काजल की तरह श्याम, नक्षत्ररूपी दाँतों से उज्ज्वल भयंकर तमरूपी निशाचर प्राप्त हुआ। (24) अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार) 6. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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