Book Title: Apbhramsa Abhyas Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 29
________________ 6. अर्थ 7. 8. - 9. ता अमियवेएण, अमरेण हूएण । थियएण सग्गम्मि, चिंतियउ हिययम्मि ।। अर्थ- समस्त जन उत्पीड़ित होता हुआ, नाम लेता हुआ एक क्षण भी नहीं थकता। लक्खण (लक्ष्मण) को उछाला जाता, गाया जाता, मृदंग वाद्य में बजाया जाता। हुणउ तिलजवघयं णवउ दियवरसयं । करकण्डचरिउ 5.11.1-2 तब जो अमितवेग देव हुआ था उसने स्वर्ग में स्थित होते हुए हृदय में चिन्ता की। सलु वि जणु उम्माहिज्जन्तउ, खणु वि ण थक्कइ णामु लयन्तउ । उव्वेलिज्जइ गिज्जइ लक्खणु, मुरव - वज्जे वाइज्जइ लक्खणु । पउमचरिउ 24.1.1-2 सुदंसणचरिउ 6.10.7 अर्थ - तिल, जौ व घृत का होम दो तथा सैंकड़ों द्विजवरों को प्रणाम करो । (22) पसुत्तु समुट्ठिउ दंतसमीहु, महाबलु लोललुवाविय - जीहु । सरोसु वि देइ कमं ण मइंदु, मणम्मि भरतह देउ जिणंदु || सुदंसणचरिउ 8.44.2 अर्थ - सोकर उठा हुआ गज का अभिलाषी, महाबलशाली, लोलुपता से जीभ को लपलपाता हुआ, सक्रोध मृगेन्द्र भी उस पर अपने पंजे का आघात नहीं कर सकता जो अपने मन में जिनेन्द्रदेव का स्मरण कर रहा हो । Jain Education International For Personal & Private Use Only अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार) www.jainelibrary.org

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