Book Title: Apbhramsa Abhyas Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 62
________________ 5. हीण दीण हउँ बंभिणि सुगुणसुबुद्धिवजिया। अप्पसुओ आहाणउ णिसुणंती ण लज्जिया।। सुदंसणचरिउ 7.12.5-6 अर्थ - मैं एक हीन-दीन, सद्गुणों और सद्बुद्धि से वर्जित ब्राह्मणी हूँ। इसी से अपनी कान-सुनी बात सुनते मुझे लज्जा (शंका) नहीं आई। 6. कालि-वन्दणहरा कन्द-भिण्णञ्जणा। सम्भु णल विग्घ-चन्दोयराणन्दणा।। पउमचरिउ 66.8 8 अर्थ - कालि और वन्दनगृह, कन्द और भिन्नांजन, शंभू और नल, विघ्न और चन्द्रोदर पुत्र ......। 7. सेसिउ हासु सुखेडपलोयणु संगु सपुवरईभरणं । होरु सुडोरु सुकंकणु कुंडलु सेहरु लेइ ण आहरणं ।। सुदंसणचरिउ 11.2.19-20 अर्थ - उन्होंने हास्य-रतिपूर्वक अवलोकन, परिग्रह, अपनी पूर्व रति के . स्मरण का परित्याग कर दिया है। वे अब सुन्दर लड़ियोंयुक्त हार, - सुन्दर कंकण, कुण्डल व शेखर आदि आभरण धारण नहीं करते। 8. तओ पेल्लियं झत्ति जाणेण जाणं, गइंदेण अण्णं गइंदं सदाणं। - तुरंगेण मग्गम्मि तुंगं तुरंगं, भुयंगं भुयंगेण वेसासु रंग। जंबूसामिचरिउ 4.21.13-14 अर्थ - तब झटपट यान से यान भिड़ गया व हाथी से दूसरा मदमत्त हाथी। मार्ग में तुरंग से ऊँचा (बलिष्ठ तुरंग) वेश्याओं में आसक्त, जार से जार। (55) अपभ्रंश अभ्यास सौरभ . (छंद एवं अलंकार) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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