Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutra Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 9
________________ [8] रक्त और मांस से रहित हो गया था । मात्र हड्डियों का ढांचा रह गया था। जब वे चलते फिरते तो हड्डियों से कड़कड़ की आवाज आती थी। एक बार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में पधारे। परिषद के साथ श्रेणिक महाराज भी वंदन करने निकला । धर्मोपदेश सुनकर परिषद् लौट गई। श्रेणिक राजा ने भगवान् को वंदन नमस्कार करके पूछा - "हे भगवन्! इन्द्रभूति आदि आपके चौदह साधुओं में से महादुष्कर क्रिया करने वाले और महानिर्जरा करने वाले कौन अनगार हैं" इसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया “एवं खलु सेणिया इमेसिं इंदभूइपामोक्खाणं चोद्दसहं . समणसाहस्सीणं धणे अणगारे महादुक्करकारए चेव महाणिज्जरतराए चेव" भावार्थ हे श्रेणिक! इन्द्रभूति आदि चौदह हजार साधुओं में धन्ना अनगार महादुष्कर क्रिया और महानिर्जरा करने वाले हैं। भगवान् के उक्त कथन को सुनकर श्रेणिक राजा भगवान् को वंदन नमस्कार करके धन्य अनगार के पास आये। धन्य अनगार को वंदना नमस्कार करके अपने निज स्थान की ओर प्रस्थान कर दिया । एक दिन धन्य अनगार को मध्य रात्रि में धर्म जागरणा करते हुए उन्हें इस प्रकार के अध्यवसाय उत्पन्न हुए कि तप की आराधना करते हुए मेरा शरीर क्षीण हो चुका है। अतएव अब मेरे लिए श्रेयकर होगा कि प्रातः काल भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर आजीवन संलेखना संथारा ग्रहण करूँ । तदनुसार प्रातः काल भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर स्थविर मुनियों के साथ विपुलगिरि पर जाकर संथारा किया। इस प्रकार नौ माह संयम का पालन कर एक माह के संथारे के साथ काल के समय काल करके सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ से यथासमय चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष को प्राप्त करेंगे। यह सूत्र विस्तार की अपेक्षा' यद्यपि लघुकाय किन्तु तप की आराधना की अपेक्षा अपने आप में बेजोड़ है। इसका अनुवाद का कार्य सम्यग्दर्शन के सह सम्पादक श्रीमान् पारसमलजी सा. चण्डालिया ने किया। तत्पश्चात् मैंने इसका अवलोकन किया। बावजूद इसके छद्मस्थ होने के कारण हम भूलों के भण्डार रहे हुए हैं। अतः समाज के सुज्ञ विद्वान् समाज के श्री चरणों में हमारा निवेदन है कि इस आगम का अवलोकन करावें, इस आगम के मूल पाठ, अर्थ, अनुवाद, विवेचन आदि में कहीं पर भी कोई अशुद्धि, गलती आदि दृष्टिगोचर हो तो हमें सूचित करने की कृपा करावें । हम उनके आभारी होंगे और अगले संस्करण में यथायोग्य संशोधन करने का ध्यान रखेंगे। संघ की आगम बत्तीसी योजना के अन्तर्गत यह नूतन प्रकाशन है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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