Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 47
________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ********************************************* ***** माता को, देवाणुप्पियाणं - देवानुप्रिय के, अंतिए - पास में, पव्वयामि - प्रव्रजित होऊंगा, आपुच्छइ - पूछता है, मुच्छिया - मूर्च्छित हो गई, वुत्तपडिवुत्तया - उक्ति-प्रत्युक्त्या-मूर्छा टूटने पर माता-पुत्र की युक्ति प्रत्युक्ति से इस विषय में बातचीत हुई, जाहे णो संचाएइ - समर्थ नहीं हो सकी, छत्तचामराओ - छत्र और चामर, सयमेव - अपने आप ही, णिक्खमणंदीक्षा-महोत्सव, पव्वइए - प्रव्रजित हो कर, ईरियासमिए - ईर्या समिति वाला, गुत्तबंभयारीगुप्त ब्रह्मचारी। भावार्थ - धन्यकुमार ने नागरिकजनों के उच्च शब्द से भगवान् का आगमन जाना और . जमाली की भांति महान् ऋद्धि के साथ वन्दन करने के लिए निकला। विशेषता यह है कि वह पैदल वन्दन करने गया यावत् उसे भगवान् की धर्मदेशना सुन कर वैराग्य उत्पन्न हुआ। विशेषता यह है कि धन्यकुमार ने कहा - मैं मेरी माता भद्रा सार्थवाही की आज्ञा ले कर आप देवानुप्रिय के पास दीक्षा अंगीकार करूंगा, ऐसा कह कर यावत् जमाली के समान वह धन्यकुमार अपने घर जा कर अपनी माता से दीक्षा की आज्ञा मांगता है। .... धन्यकुमार की बात सुनते ही भद्रा माता मूर्च्छित हो गई। थोड़े समय बाद मूर्छा हटने पर माता की दीक्षा ग्रहण न करने की निषेध रूप उक्ति और पुत्र की प्रत्युक्ति इत्यादि महाबल के समान जानना चाहिये यावत् जब भद्रा माता दीक्षा का निषेध करने में समर्थ नहीं हुई तब जिस प्रकार थावच्चापुत्र की दीक्षा के उत्सव के लिये उसकी माता थावच्चा ने श्रीकृष्ण के पास याचना की थी, उसी प्रकार भद्रा माता ने जितशत्रु राजा से अपने पुत्र के दीक्षा-महोत्सव के लिए छत्र, चामर आदि की याचना की तब जितशत्रु राजा ने स्वयं ही उसका दीक्षा-महोत्सव किया जैसे श्रीकृष्ण ने थावच्चापुत्र का दीक्षा-महोत्सव किया था यावत् धन्यकुमार दीक्षा अंगीकार कर अनगार बन गये। वे ईर्यासमिति में उपयोग युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गये। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वर्णन किया गया है कि जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी काकन्दी नगरी में पधारे तब नगर निवासी मनुष्यों के परस्पर वार्तालाप जन्य उच्च नाद से भगवान् के आगमन को जान कर धन्यकुमार के हृदय में इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए - धर्म की आदि करने वाले, धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले, धर्मनायक, धर्म सार्थवाह चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी काकन्दी नगरी के बाहर सहस्राम्रवन उद्यान में पधारे हैं और समस्त जन उनके वन्दनार्थ जा रहे हैं तो ऐसे महान् गुणों से युक्त अर्हन्त भगवंतों के नाम मात्र सुनने से भी महाफल की प्राप्ति होती है तो फिर उनके सम्मुख दर्शनार्थ जाने तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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