Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 73
________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ************************ ************ ************ विवेचन - धन्य अनगार के विषय में प्रभो के उद्गार सुन कर राजा श्रेणिक का हृदय प्रसन्नता से हृष्ट तुष्ट हो गया। भगवान् को वंदन नमस्कार कर वह धन्य अनगार के पास गया जहां वे अन्य अनगारों के मध्य विराजमान थे। भगवान् के अनगारों में कितनेक आचारांग से, लेकर विपाक पर्यंत ग्यारह अंग सूत्रों के ज्ञाता अनगार समूह रूप में बैठे हुए तत्त्व चिंतन कर रहे थे, कितनेक शास्त्र संबंधी प्रश्नोत्तर करने वाले, कितनेक सूत्र पाठ की बार-बार आवृत्ति (स्वाध्याय) करने वाले, कितनेक सूत्र के अर्थ का चिन्तन करने वाले, कितनेक धर्म कथा कहने वाले, कितनेक अपने घुटनों को खड़े रख कर तथा मस्तक को नीचे झुका कर इन्द्रियों की एवं . मन की वृत्ति को रोक कर ध्यानस्थ थे, कितनेक संसार के भय से अत्यंत व्याकुल, जन्म मरण . से डरे हुए, कितनेक पन्द्रह दिन की दीक्षा पर्याय वाले, कितनेक एक मास की दीक्षा पर्याय वाले यावत् छह मास, बारह मास, दो, पांच, सात, ग्यारह, पन्द्रह, बीस वर्ष व इससे अधिक दीक्षा पर्याय वाले स्थविर थे। कितनेक मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक थे। कितनेक मनोबली, कितनेक वचनबली, कितनेक कायबली तथा कितनेक आर्मषौहि आदि नानाविध लब्धियों के धारक थे। कितनेक एक मास की तपस्या करने वाले, कितनेक दो मास की यावत् छह मास तक की तपस्या करने वाले थे। इस प्रकार छह जीवनिकाय के रक्षक सभी अनगार जिस प्रकार मानसरोवर पर राजहंस सुशोभित होते हैं उसी प्रकार गुणशील उद्यान में सुशोभित थे। ___उन मुनियों के बीच में राजा श्रेणिक ने धन्य अनगार को देखा जो उत्कृष्ट भाव से गृहीत, कर्मों का नाश करने वाले, मोक्ष लक्ष्मी को देने वाले तप से शुष्क हो गये थे। उनका शरीर केवल अस्थि चर्म मात्र रह गया था तथा जिनके उठने बैठने से अस्थियों की किट-किट आवाज होती थी। वे शरीर से इतने कृश हो गये थे कि उनका शरीर नसों का जाल मात्र ही दिखाई देता था फिर भी वे आत्मिक कांति से देदीप्यमान तप तेज पुंज जैसे दिखाई देते थे। ऐसे धन्य अनगार के समीप पहुंच कर तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा पूर्वक वंदन नमस्कार कर राजा श्रेणिक बोला - ___ 'हे देवानुप्रिय! आप धन्य हैं। देवताओं के द्वारा भी प्रशंसनीय हैं। आप महापुण्यशाली हैं क्योंकि आपने शीघ्र ही संयम तथा तप की आराधना कर ली है। आप कृतार्थ हैं क्योंकि आपने अपनी आत्मा का कल्याण कर लिया है। आप सुकृत लक्षण हैं क्योंकि आपने सम्यक् रूप से चारित्र की आराधना कर ली है। हे देवानुप्रिय! आपने जन्म और जीवित का फल प्राप्त कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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