Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 79
________________ ६२ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ************** अनुत्तरोपपातिकदसा के तीसरे वर्ग के प्रथम अध्ययन का पूर्वोक्त भाव फरमाया है तो हे भगवन् ! अनुत्तरोपपातिकदसा नामक नववें अंग के तीसरे वर्ग के दूसरे अध्ययन का प्रभु प्रतिपादन किया है सो कृपा कर फरमाइये । क्या अर्थ यह पाठ प्रायः प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ में आता है अतः उसको संक्षिप्त करने के लिये यहां उक्खेवओ - उत्क्षेपः पद दिया गया है। अन्य आगमों में भी इसी शैली का अनुसरण किया गया है। जंबूस्वामी की जिज्ञासा का समाधान करने के लिये सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं - हे जम्बू ! उस काल उस समय में काकन्दी नाम की नगरी थी । उसमें भद्रा नाम की एक सार्थवाही निवास करती थी। उस भद्रा सार्थवाही के एक सुनक्षत्र नामक पुत्र था। वह सर्वांग सम्पन्न और सुरूप था। पांच धायमाताएं उसके लालन पालन के लिए नियुक्त थी । जिस प्रकार धन्य कुमार का बत्तीस कन्याओं के साथ विवाह हुआ, बत्तीस प्रकार का दहेज आया उसी प्रकार सुनक्षत्र कुमार के लिए भी समझना यावत् वह सर्वश्रेष्ठ भवनों में सुखोपभोग कर रहा था। प्रव्रज्या ग्रहण ते काणं तेणं समए णं समोसरणं, जहा धण्णे तहा सुणक्खत्ते वि णिग्गए जहा थावच्चापुत्तस्स तहा णिक्खमणं जाव अणगारे जाए ईरियासमिए जाव बंभयारी । कठिन शब्दार्थ - णिग्गए- निकला, थावच्चापुत्तस्स - थावच्चापुत्र का, णिक्खमणंनिष्क्रमण-दीक्षा महोत्सव, ईरियासमिए - ईर्यासमिति वाला, बंभयारी - ब्रह्मचारी । भावार्थ - उस काल और उस समय वहां भगवान् महावीर स्वामी पधारे। धन्यकुमार समान सुनक्षत्र कुमार भी भगवान् को वंदन करने के लिए निकला। धर्मोपदेश सुन कर उसे प्रतिबोध प्राप्त हुआ और थावच्चापुत्र के समान उसका दीक्षा महोत्सव हुआ यावत् वह अनगार हो गया। ईर्यासमिति में तत्पर यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गया । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में धन्य अनगार और थावच्चापुत्र की भलावण दी गयी है । धन्य अनगार का वर्णन तृतीय वर्ग के प्रथम अध्ययन में और थावच्चापुत्र अनगार का वर्णन ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के पांचवें अध्ययन में किया गया है। जिज्ञासुओं को विशेष जानकारी के लिए इनका अध्ययन ( स्वाध्याय) करना चाहिये । अभिग्रह और विद्याध्ययन तणं से सुणक्खते अणगारे जं चेव दिवसं समणस्स भगवओ महावीरस्स Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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