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की और जगत् की चिर बुभुक्षित वासना का आखेट बना दिया गया । इस निर्णय के पहले, जाने कितने महीनों की रातें मैंने जिस नारकीय यातना में काटी, उसे पुरुष की जाति कभी नहीं समझ सकेगी । लेकिन तुम ? जगत् के तमाम पुरुषत्व से पीठ फेर कर, तुम्हें मैंने अपने एकमेव नियोगी पुरुष के रूप में स्वीकारा था । क्या तुम भी अनुमान कर सकोगे, मेरी उन अनाथ रातों के आर्त क्रन्दन और मूक घुटते विलापों का? केवल तुम्हारा ही तो नाम अपनी हर साँस में पुकार रही थी। क्या तुमने सुना नहीं ? तो फिर क्यों न आये मेरे परित्राण को? शायद तुम उन दिनों हिमवान्, विन्ध्याचल और विजयार्द्ध की अभेद्य अटवियों में, अपनी किसी स्वप्न-प्रिया को खोज रहे थे !
__ फिर तो तुम वैशाली आये ही । मेरा स्वप्न-पुरुष मेरे नगर में पहली बार आया । तुम्हारे आगमन के उदन्त की वह पहली रात कितने दारुण द्वंद्व में बितायी थी मैंने । मेरे प्राणों में उमंगों और सपनों के तूफ़ान उठ रहे थे । कल मैं अपने उस ‘एकमेव अपने' को देख सकूँगी ? .. और दूसरी ओर सारी वैशाली का वासना-मत्त यौवन मेरे हृदय पर आरियाँ चला रहा था । गुर्राते तेन्दुओं की सर्वभक्षी डाढ़ों के बीच, तुम्हारे सामने आना मुझे न भाया । तुम्हारी और मेरी आँखों के प्रथम दृष्टि-मिलन के बीच, हिंस्र वासना का धधकता जंगल मुझे सह्य न हो सका । अपने से भी अधिक, वह मुझे तुम्हारा अपमान लगा । तुम्हारी कुँवारी सती हो कर जो रह गयी थी। एकान्त रूप से तुम्हारी योषिता नारी, जन्मजात केवल तुम्हारी । उसे ठीक तुम्हारी आँखों आगे, हज़ारों लम्पट पुरुषों की आँखें घरें, यह मैं कैसे सह सकती थी। सो अपने प्राण की उमंगों और सपनों का मैंने गला घोंट दिया। मैं नहीं आई संथागार में । प्राणहारी वेदना के उन क्षणों में, एक पत्र लिख कर तुम तक अपना निवेदन पहुँचाया । उत्तर में तुम्हारे शब्द पाये । उस दिन जो मुक्ति का सुख अनुभव किया था, वह अनिर्वच है। ...
तुमने संथागार की भरी सभा में एक वेश्या को अपने माथे पर चढ़ाकर, उसकी महिमा को सारे जगत् के सामने उजागर किया । तुमने सत्ता और सम्पत्ति के सिंहासनों को, लीला मात्र में उलट कर, उनके भीतर बैठे दानव को नंगा कर दिया । तमाम जम्बूद्वीप की धरतियों में भूकम्पी बिजलियों के विस्फोट हुए । मुझ कलंकिनी के नाम के साथ तुम्हारा हिमोज्ज्वल नाम जोड़ कर, आसमुद्र पृथ्वी के बाजारों में खुले आम गाया गया। लेकिन तुम जो लौट गये अपनी राह, तो फिर मुड़ कर इस जगत् के कोलाहलों की ओर तुमने नहीं देखा।
मेरे पत्र द्वारा मेरा दरद बेशक तुम तक पहुँचा । उत्तर में तुम्हारे शब्दों में, वह अचूक आश्वासन तो था ही, जो कोई भी भावी भगवान् दे
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