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उधर सात्यकी शून्य-मनस्क हो दिन पर दिन, बरस पर बरस गुजारता चला गया। जी में एक फाँस गड़ी है, दो नीलसर आँखें कसकती हैं। आरब्य समुद्र के छोर छा लिये हैं, उन आँखों की प्रतीक्षाकुल टकटकी ने। लेकिन क्या उपाय है। पश्चिम के इस दिगन्त से पूर्व के उस दिगन्त तक, दो कभी न लिखी जाने वाली प्रणय-पत्रिकाओं की प्रत्याशा भटके दे रही है। सात्यकी सोचता है, मेरा सत्य कहीं कोई होगा, तो एक दिन सामने आयेगा ही। सुज्येष्ठा सोचती : भूल मुझी से हुई, मैं रूठ गई, मान कर बैठी। लेकिन समय के शून्यांश में इतना अवकाश कहाँ। काल और दिगन्त निश्चिह्न मौन हैं। जान पड़ता है, वह मेरा सत्य नहीं था। ... .. और एक दिन सुज्येष्ठा बिना कहे ही, आधी रात घर छोड़ गई।
उन दिनों श्री भगवान् वैशाली से कुछ दूर, सोनाली तटवर्ती 'नीलांजन उपवन' में विहार कर रहे थे। एक दिन भिनसारे भगवती चन्दन बाला उपवन के एक निभृत एकान्त में, खुली आँखों संचेतना-ध्यान में अवस्थित थीं। ठीक तभी सुज्येष्ठा वहाँ आ पहुँची। उसे वन्दना करने की भी सुध न रही। हाथ जोड़, जानू के बल बैठ, नयन भर बोली :
'माँ, संसार में अब पाने को कुछ न रहा। कहीं जी लगता नहीं। मुझे अपने जैसी ही बना लो।'
चन्दना चुप । लम्बी चुप्पी। सुज्येष्ठा हताहत होती गई। फिर भी उत्तर न आया। सुज्येष्ठा ने फिर अनुबय की :
'माँ के चरणों में भी ठौर नहीं...? तो कहाँ जाऊँ ?' . भगवती एकाग्र तृतीय नेत्र से सुज्येष्ठा को ताकती रहीं। पर उत्तर न दिया।
'प्राणि मात्र की माँ, इतनी कठोर हो गईं ? मेरा कोई आत्मीय नहीं, घर नहीं। मेरा कोई भूत, वर्तमान, भविष्य नहीं। मुझ अनाथिनी के नाथ केवल महावीर, मेरी माँ केवल तुम !'
'अपने मन को देख, कल्याणी !' माँ का स्वर सुनाई पड़ा। . 'मन अब कहाँ बचा माँ, कि उसे देखू ! विमन शून्य हो गई हूँ। तभी तो माँ की शरणागता हुई हूँ।'
'नहीं हुई शून्य, नहीं हुई समर्पित। कहीं अन्यत्र है तू !' सुज्येष्ठा अवाक् रह गई। उसने माँ के चरण पकड़ लिये। 'वह अन्यत्र कहाँ है, कोई पता नहीं। मुझे अपनी सती बना लो, माँ !' 'वह अन्य और अन्यत्र है। देखोगी एक दिन । उस मुहूर्त की प्रतीक्षा करो।'
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