________________
२९४
""मानस्तम्भ पर दशार्णपति की निगाह न उठ सकी। मानांगना भूमि पार हो गयी। समवसरण के अनेक मण्डलों से राजा गुज़र रहा है। पर उसके अलौकिक ऐश्वर्य को उसने देखा ही नहीं। वह देख रहा है, केवल अपने साथ चल रहे अपने परिकर के वैभव को। अपनी रानियों के रूप और शृंगार को। अपने रत्नाभरणों को, अपनी मुकुट-मणि को। नरनाथ दशार्णभद्र केवल अपने को और अपने विभव-विस्तार को देख रहा है।
श्रीमण्डप में प्रवेश कर राजा ने, अपने समस्त परिकर और अन्तःपुर के साथ श्रीभगवान का त्रिवार वन्दन-प्रदिक्षण किया । और सन्मुख आ कर प्रभु की दृष्टि को एक टक निहारने लगा। कि वे कैसे उसे और उसके वैभव को देख रहे हैं। किन आँखों से देख रहे हैं। लेकिन राजा ने देखा कि प्रभु तो कुछ नहीं देख रहे, और सब कुछ एक साथ देख रहे हैं। वे केवल अपने को देख रहे हैं, और उसमें आपोआप सब कुछ देखा जा रहा है। तो क्या दशार्णपति की ऐसी वैभवशाली वन्दना घटित ही न हुई ? मानो उसका यहाँ आना, कोई बात ही न हुई ! कोई अपूर्व घटना घटी ही नहीं ! ... . ऐसा कैसे हो सकता है। उसने फिर लौट कर अपने परिमण्डल और वैभव पर दृष्टिपात किया। उसका ओर-छोर नहीं है, सारा समवसरण उसके परिमण्डल की छटा से व्याप्त है। उसकी रानियों के रूप और रत्नों से सारा श्रीमण्डप जगमगा रहा है। और श्री भगवान ने एक निगाह देखा तक नहीं, कि कौन आया है ? कैसे अमुल्य रत्नों की भेंट लाया है ? ऐसा कैसे हो सकता है ? ' कि सहसा ही दशार्णपति ने देखा, सुदूर अन्तरिक्ष का नील खुल रहा है। और उसमें से आता दिखायी पड़ा, एक विशाल जलकान्त विमान । उसके तरल स्फटिक जैसे जल-प्रान्तर में सुन्दर कमल विकस्वर हैं। हंस और सारस पक्षी वहाँ क्रीड़ा-कूजन कर रहे हैं। देव-वृक्षों और देव-लताओं की श्रेणी में से झरते फूलों से वह शोभित है। वहाँ नील-कमलों के ऐसे वन हैं, मानो उस सरोवर पर इन्द्रनील मणि के बादल घिर रहे हों । मर्कत आभा वाली नलिनी में, विकस्वर सुवर्ण कमल की आभा का प्रवेश। रंग और प्रभा की कैसी मोहन माया। सारे विमान में निरन्तर बहुरंगी जल की तरंगें उठ रही हैं। वही मानो इसके अनेक रंगी द्वार हैं, तोरण-बन्दनवार हैं। वहीं इसकी पताकाएँ हैं। _और इस विशाल जलकान्त विमान की केन्द्रीय पुष्पराज वेदी पर बैठा है इन्द्र, अपनी प्रियस्विनी ऐन्द्रिला के साथ, अपने सहस्रों सामानिक देव-मण्डलों से घिरा हुआ । हज़ारों देवांगनाएँ उस पर चंवर ढोल रही हैं । लावण्य की लहरों-सी नाचती अप्सराएँ। आकाश के नेपथ्य से बहती संगीत की सुरमाला।
...अचानक विमान ने भूमि स्पर्श किया। उससे उतर कर इन्द्र मनुष्य लोक में जब चला, तो उसके चरण पात से मर्कत के मृणाल पर माणिक्य
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org