Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 391
________________ हूँ। मेरी कला में इस सबकी तलछट तक अभिव्यक्ति न हो, तो मुझे चैन महीं आता। मेरी भाविक-वैचारिक स्फुरणाएँ भी हर बार नव्य से नव्यतर स्रोतों से आती रही हैं। उन्हें कला में रूपायित करने के लिए मुझे हर बार नायाब से नायाबतर मौलिक भाषा का आविष्कार करना पड़ता है। इसी वजह से मेरे यहाँ बेशुमार नये शब्द बने हैं । अपने स्वभाव की इस सीव्रता, विपुलता और संकुलता के चलते मेरी रचना-प्रक्रिया सदा बहुत जटिल रही है। अपने भाव-स्फोट को निःशेष अभिव्यक्ति देने की आकुलता के चलते, मैंने शब्द और भाषा की तमाम सम्भावना और ताक़त को चुका दिया है। शब्द को मैंने इतना अधिक और अतिक्रान्ति की हदों तक लिखा कि उसके मोह से अब मैं मुक्त और निर्वेद होता जा रहा हूँ। .. .. मेरे लिए हर लेखन सदा रियाज रहा, बेहतर से बेहतरीन कथ्य और शिल्प के आविष्कार की एक प्रयोगशाला रहा। मेरा ध्यान उपलब्धि पर कभी न · रहा, सदा नव्य से नव्यतर तलाश के उपक्रम और पराक्रम पर हो रहा। अपने हर लेखन से मैंने कुछ नया सीखा है; उससे चेतना में एक नया विकास, आत्मा में एक नया उत्थान और शिल्प में कोई नवीनतर मूर्तन हुए बिना न रह सका है। 'अनुत्तर योगी' में मेरी यह प्रबृत्ति चरम पर पहुंची है। सभी अर्थों में अपना सर्वस्व मैंने इसमें निचोड़ दिया है। लेकिन जो विजन, बोध, महाभाव और ज्ञान इस रचना में आविर्भूत हुआ है, वह मेरे ही भीतर के, फिर भी मुझ से परे के किसी आन्तरिक पर पार ( Beyond within ) से आया है । वह मेरा कृतित्व नहीं, परात्पर चैतन्य का प्रसाद है, अवतरण है। मैं स्वयम् भी अनुत्तर योगी' को बार-बार पढ़ कर हर बार उसमें से जैसे एक नवजन्म और नवोत्थान का बोध पाता हूँ। उसमें से जोने और रचने की अजस्र प्रेरणा, वासना और शक्ति प्राप्त करता हूँ। ____ 'अनुत्तर योगी' में विपुल मात्रा में नाविन्य का सर्जन हुआ है। चेतना के अब तक अननुभूत, अप्रकाशित नव्य से नव्यतर प्रदेशों की खोज-यात्रा, और उनमें उत्तर कर मुक्त विहार करने का एक अकथ्य सुख मैंने पाया है। इसी कारण इस ग्रंथ में मेरा शाब्दिक और भाषिक बाहुल्य, पैविध्य, घनत्व और नाविन्य पराकाष्ठा पर पहुंचा है। फलतः इस रेचन से मैं बहुत हलका और भार-मुक्त हो गया हूँ। सृजनात्मक मुक्ति का ऐसा गहरा और शाश्वत आनन्द-बोध मुझे इससे पूर्व कभी न हुआ था। मानों कि भाषातीत होने की अनी पर जा खड़ा हुआ हूँ। इस रियाज़ में मेरी भाषा उत्तरोत्तर विरलतर, महीनतर ( Finer ) और परिष्कृत होती गई है। एक निरा. यास भाव-संयम और शब्द-संयम भी किसी क़दर आया है। लाघव का कौशल पहली बार मुझे किसी क़दर हस्तगत हो सका है । एक 'क्लासीकल सिम्पलीसिटी' भी कई मुक़ामों पर उपलब्ध हो सकी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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