Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 390
________________ ४८ है। उसमें काल और कालातीत का, भौतिक और पराभौतिक (मेटाफ़िज़िकल) का एक विलक्षण और प्रत्ययकारी सामंजस्य प्रकट हुआ है। आम्रपाली की अन्तर्गामी अन्तरिक्ष यात्रा की फन्तासी, उसमें षट-चक्र-वेध, कुण्डलिनी-उत्थान आदि की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का विनियोजन, तथा अन्य अनेक मिथकों और प्रतीकों का जो नियोजन अनायास हुआ है, उस पर ध्यान खींचना भी आवश्यक लगा। उस काल के छह प्रमुख तीर्थकों की स्वतंत्र विद्रोही चेतना का वर्तमान सन्दर्भ में अवबोधन और व्याख्यायन, तथा गोशालक के रूप में आज की वामशक्ति के प्रतिवाद, अस्तित्ववाद, भोगवाद आदि के एक सशक्त प्रतिनिधि का सृजनात्मक अवतरण भी एक अनोखी उपलब्धि हो गया है मेरे मन । इस कारण उस पर रोशनी डालने का. लोभ भी मैं संवरण न कर सका। ___ इन सात अध्यायों के बाद बीस कहानी-अध्याय लिखे गये हैं। हर कहानी अपने में स्वतंत्र है, पर केन्द्र में कहीं वह महावीर से जुड़ी है। समग्रता में वे इस वृहद् रचना के विविध आयामी अन्तरकक्ष हैं । इन कहानियों को लिख कर मुझे एक गहरे सन्तोष और परिपूर्ति की उल्लसित अनुभूति हुई है। पहली बात तो यह कि ये 'विशुद्ध कहानियाँ' हो सकी हैं। सीधे-सीधे सहज सरल ढंग से कहानी कहते जाने की जो रवानी और तात्कालिकता (इमिजियेसी) इन कहानियों में मुझ से बन आयी है, वह मेरे समूचे लेखन में एक अगला कदम है, एक नयी रचना-भूमिका का आविष्कार है। बहुत हलके-फुलके, फूल-से खिलते-नाचते मन, और निहायत हलके हाथ से मैंने इन्हें लिखा है। जैसे नदी-तट पर बैठ कर अनायास ही उसकी तरंगों से खेल रहा हूँ, और उनमें बहता भी जा रहा हूँ। यूं तो सृजन-मात्र मेरे मन एक तरंग-लीला ही है : सहज लीला भाव से होने में ही उसकी असली सार्थकता है। सृजन यों भी मेरे लिए कभी श्रम-साध्य नहीं रहा, सहज स्वाभाविक ही रहा, एक अजस्र स्फुरणा में से वह यों बहता आया है, जैसे झरने के विस्फोट में से नदी अपने आप बहती चली आती है। जैसे किसी इलहाम या 'ट्रान्स' में से शब्द धारासार बरसते गये हैं, और आपोआप ही वे रचना में विन्यस्त होते गये हैं। - मेरी ऐन्द्रिक चेतना बहुत तीव्र है, मेरी अनुभूति और संवेदना अत्यन्त भावाकुल और संकुल है। मेरे भाव-प्रवाह में एक निर्बन्धन् वैपुल्य ( Exuberation ) और प्राचुर्य हैं । मुझ में सृष्टि के एकाग्र समग्र भोग की एक प्रचण्ड वासना है, संवासना है, एक भयंकर 'फोर्स' है, जो मुझे सदा पूर्ण से पूर्णतर आत्मकाम की तृप्ति के लिए बेचैन और अशान्त रखता है । मुझे वर्तमान जगत्-सृष्टि से सन्तोष नहीं : मैं उसे एक पूर्ण सत्य, सौन्दर्य और सम्वादिता (हार्मनी) में रूपान्तरित पाने को निरन्तर व्याकुल रहता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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