Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 347
________________ पराग प्रदेशों में प्रवेश करते ही, कराल मारकता जैसे काफूर हो गई। मैं एक नये ही लोकान्तर में मानो नवजन्म पा गया। सौन्दर्य और मार्दव के इस चन्दन-कपूरी संस्पर्श में जैसे मैं अनन्त जीवन और यौवन की वासना से भर उठा। कराल पर कोमल की विजय का यह साक्षात्कार, मेरे रचनाकार के जीवन की एक अद्भुत मोक्षानुभूति है। महावीर के सपनों और विरह में जीती आम्रपाली के साथ, मैं देश-काल के अब तक अननुभूत आयामों में विचरने लगा। लगातार कई सप्ताह एक फ़न्तासी की नानारंगी रत्निम नीहारिका में जीने का वह सुख कह कर बताना मुश्किल है। ऐसा लगता था, कि जैसे किन्हीं अनतिक्रम्य विश्वों में मैं संक्रमण और अतिक्रमण करता चला जा रहा था। साथ में थी स्वप्न, सौन्दर्य, कला और कोमलता की सारांशिनी देवी आम्रपाली। मानो कि देवी अपने वक्षद्वय की बिस-तन्तु तनीयसी गहराई में मेरा वहन कर रही थीं। वहाँ से सृजन के जो अनाहत स्रोत पी कर मैं उठा, तो ख्याल आता रहा कि ज़रूर कहीं कोई सोमसुरा अस्तित्व में है, या रही होगी। ____ अजस्र चला वह सृजन का प्रवाह : मार्दव, माधुर्य, ज्ञान, प्रकाश, ऊर्जा और शक्ति का एक संयुक्त धारासार प्रस्रवण। फरवरी १९७९ से सितम्बर १९७९ तक, कुल आठ महीनों के बीच चतुर्थ खण्ड के सत्ताईस अध्याय लिखे गये। संकल्प यह था कि चतुर्थ खण्ड में ही अतिरिक्त दो सौ पृष्ठ लिख कर, श्री भगवान् के तीर्थकर काल को मोक्ष-प्रस्थान तक ले जा कर, समापन कर दिया जाये। ____ लेकिन गत आठ महीनों में जो अनवरत सृजन-श्रम का दबाव मेरे नाड़ीमण्डल पर रहा, उसने मुझे शरीरतः फिर निढाल और हतप्राण-सा कर दिया। आत्मबल और मनोबल चाहे जितना ही ऊर्जस्वल रहा हो, लेकिन शरीर ने साथ छोड़ दिया। शरीर इतना श्रान्त, क्लान्त, श्लथ और विजड़ित हो गया, कि कोई चिकित्सा उसमें प्राण का संचार न कर सकी। तिस पर उसी काल में ऐसी परिवेशगत आक्रान्तियाँ भी ऊपर-ऊपरी आयी कि जीने की आशा ही दुराशा होती दीखी। जैसे किसी पैशाची शक्ति ने मेरी जीवनी-शक्ति ही मुझ से छीन ली थी। अन्दर रोशनी और प्रातिभ ऊर्जा वैसी ही अमन्द थी, लेकिन काया मुमुषुप्राय हो पड़ी थी। आँतें कमज़ोर पड़ गई थीं, और आमातिसार का असर दीखा। शरीर क्षीण हो चला। हैरत में था कि आखिर यह यज्ञ-भंग का दृश्य क्यों कर उपस्थित हुआ है ? मेरी रक्तवाहिनियों में आठ वर्ष से निरन्तर संचारित महावीर के होते भी, शरीर इतना लाचार कैसे हो गया ? शायद इसलिए, कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ अहंत के तेज को निरन्तर झेलते-सहते जाने और रचते जाने के स्ट्रेन को मेरे मानवीय शरीर की सीमाएँ बर्दाश्त न कर सकीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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