Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 381
________________ ३९ गोशालक का यह उलंग भोगवाद, ब्राह्मणों और श्रमणों के त्याग और पुरुषार्थ - प्रधान मोक्ष या निर्वाणवाद का, सब से सशक्त और सफल विरोधी सिद्ध हुआ था । इसी कारण भारतीय आगमों में और इतिहास भी उसकी काली तस्वीर ही अधिक सामने आती है, उसकी उजली तस्वीर नहीं । उसके नियतिवादी दर्शन में भी एक आंशिक सत्य तो था ही, जिसको परोक्ष रूप से ब्राह्मण और श्रमण दर्शन में एक सापेक्ष समर्थन तो मिलता ही है । तिस पर जैनागम में तो अपवाद रूप से गोशालक को अधिक विधायक स्वीकृति प्राप्त है । प्रथमतः यह कि तपस्याकाल में मौन विचरते महावीर का वहीं प्रथम अनुगत शिष्य हुआ था । स्पष्ट अहसास होता है कि महावीर ने उसे अनायास अपनाया था, अपने एक बाल्यं शिशु के रूप में उसे अपना वीतराग मार्दव और वात्सल्य भी अनजाने ही दिया था। सो प्रभु को छोड़ कर वह जा न सका । कथा क्रम में आखिर छह वर्ष बाद वह प्रभु को छोड़ गया था : मगर इस प्रेरणा और अभीप्सा के साथ, कि वह भी एक दिन महावीर का समकक्षी होकर ही चैन लेगा । सो महावीर के कैवल्यलाभ कर परिदृश्य पर प्रकट होने से पूर्व, उसने एक बार तो भारतीय जन-मानस पर अपनी अचूक प्रभुता स्थापित कर ही ली थी । लेकिन महावीर जब सर्वज्ञ अर्हन्त होकर लोक- शीर्ष पर सूर्य की तरह प्रभास्वर हुए, तो गोशालक का स्वच्छन्द भोगवाद फीका और प्रभावहीन होता दिखाई पड़ा । तब क्रुद्ध होकर उसने प्रभु के समवरण में जा कर उन्हें ललकारा, विवाद किया और अन्ततः उन पर अग्निलेश्या प्रक्षेपित करके उन्हें भस्म कर देना चाहा । पर वह प्रहार नाकाम हो गया । वह महादाहक कृत्या लौट कर गोशालक के शरीर में ही प्रवेश कर गई । फलतः वह भयंकर दाह-ज्वर में सात दिन-रात तक जलता रहा । सन्निपातग्रस्त हो गया । उस सन्निपाती प्रलाप में भी वह अपने भोगवादी दर्शन का उद्घोष अदम्य ऊर्जा के साथ करता रहा। और उसको अन्तिम साँस भी उसी अवस्था में छूटी। उसके देहान्त के उपरान्त पट्टगणधर गौतम ने महावीर से जिज्ञासा की कि—–'मर कर गोशालक किस योनि में जन्मा है ।' उत्तर में महावीर ने कहा कि - 'उसने अच्युत स्वर्ग में उत्तम देवगति प्राप्त की है । क्योंकि अपनी मूल चेतना में वह आत्मकामी था, मुमुक्ष था, और तपस्वी भी था । अपने ऊपर अग्निलेश्या - प्रहार के बावजूद महावीर ने उसे क्षमा ही किया था, उसके आगामी आत्मोत्त्थान और भावी मोक्षलाभ का अचूक वचन भी उसे दिया था । इस प्रकार हम देखते हैं कि केवल जैनागम में ही उसके उजले पक्ष पर भी यथास्थान रोशनी पड़ती है । और महावीर के निकट उसे स्वीकृति भी प्राप्त होती है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396