Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 386
________________ ४४ अभाव की चरम अनुभूति की अनी पर उसके भीतर एक दुर्दान्त काम जागा, जो सृष्टि का उत्स है, और मनुष्य की तमाम इच्छा - वासनाओं का जो उत्प्रेरक भी है, और सर्जक तथा पूरक भी । उसके जन्मान्तरों के दमित क़ाम में से एक सुलगता प्रश्न उठा -- 'क्या कहीं उसके लिए कोई नारी नहीं है ? कोई नारी -- जो उसे अपने भीतर लेकर, उसके सारे अभावों को भर दे, उसके अनाद्यन्त ज़ख्मों को रुझा दे ?' . और तभी उसमें दुर्दान्त संकल्प - वह अग्निलेश्या सिद्ध करके, उसके बल अपने समय के तमाम तीर्थकों को नेस्तनाबूद कर देगा। प्रभु वर्गों को धूलिसात् कर देगा । और उनके प्रतिनिधि त्रिलोकपति महावीर के तीर्थंकरत्व को चकनाचूर करके, अपने समय का प्रतिसूर्य और प्रति-तीर्थंकर हो कर पृथ्वी पर चलेगा ।' और तभी महाशक्ति की पुकार उठी उसमें-- शक्ति की स्रोत और अधिष्ठात्री नारी को प्राप्त करने के लिए । जागा- वह चल पड़ा : धलिधूसरित, नंगा, गोरा, सुंदर सुकुमार युवक । आँखों में छलछलाती दर्द और आक्रोश की शोलाग़र शराब । किसी अज्ञात कामायनी की तलाश का तूफ़ानी आवेग । वह श्रावस्ती के राज मार्गों पर अनिर्देश्य भहकता एक विशाल कुम्भारशाला के सामने अचानक ठिठक गया । सैकड़ों चलते चाकों के बीचोंबीच के केन्द्रीय उलाल चक्र पर भाण्ड उतारती कुम्भारकन्या हालाहला की निगाह उस पर पड़ गई। एक अमाप 'स्पेस' में दो निगाहें टकराईं । ठगौरी पड़ गई । हठात् कुम्भार बाला खिंची चली आई, श्यामांगी परमासुन्दरी । माटी की मौलिक बेटी मृत्तिला ने, माटी के चिर पद - दलित बेटे की व्यथा को जैसे मन ही मन बूझ लिया। इंगित से आदरपूर्व वह नग्न श्रमण को अपने भवन में लिवा ले गई । -- वह श्रीमंत होते हुए भी, श्रमजीवी कुम्भकार वर्ग की बेटी थी । ...गोशालक को उसकी नियोगिनी नारी मिल गई। हालाहला के रूप में श्रीसुन्दरी महाशक्ति ने ही अपने इस सर्वपरित्यक्तं वामाचारी बेटे को जैसे अपनी गोद में ले लिया। हालाहला की कुम्भारशाला के भट्टी- गृह के एक कक्ष में बन्द रह कर, गोशालक ने कठिन तप द्वारा अग्नि- लेश्या सिद्ध कर ली । सत्यानाश का एक अमोघ अस्त्र उसे उपलब्ध हो गया । उसके मूलाधार में सुप्त उसकी कुण्डलिनी शक्ति फुंफकार कर जाग उठी। उसी का मूर्त 1. रूप थी मानो मृत्तिका हालाहला । उससे अनन्त सृजन- प्रेरणा प्राप्त करके, उसने हालाहला द्वारा आयोजित तमाम सुख-साधनों के बीच बैठ कर, अपने स्वानुभूत नियतिवादी, भोगवादी आजीवक दर्शन के सूत्रों की रचना की । भोग के तात्त्विक आठ माध्यमों को आधार बना कर उसने अपने अष्ट L चरमवाद को रूपायित किया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396