Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 352
________________ १० शक्तियों द्वारा उत्पन्न ध्वंसक विघ्न अनिवार्यतः आते ही हैं । सो बमुश्किल इस खण्ड का मूलपाठ अनेक बाधाएँ पार कर के छप भी गया, तो केवल पश्चात् - भूमिका के लिए उसे चार महीने रुके रहना पड़ा । प्रिय लवलीना का जलना और उसका विक्षिप्त होना, मेरी नस-नस को तोड़ देनेवाली अस्वस्थता, ये सब अन्तरायें उक्त विरोधी शक्तियों द्वारा उत्पन्न विघ्नों के सिवाय और क्या कही जा सकती हैं ! अस्तु । चतुर्थ खण्ड के लिए मेरे प्यारे हज़ारों जाने-अनजाने पाठकों की प्यासी पुकार मुझ तक बराबर पहुँचती रही है। उसने जहाँ मुझे उद्विग्न किया है, वहीं कृतार्थता बोध भी कराया है, कि सार्वभौमिक लोक - हृदय में मेरी यह अनगढ़ कृति इस क़दर जज्ब हो सकी है । आश्चर्य होता है कि 'अनुत्तर योगी' जैसी एक सूक्ष्म और दुरूह किताब लोकप्रियता की अनी पर कैसे आ खड़ी हुई है ! तुलसीदास, शरच्चन्द्र या विमल मित्र के साथ यह घटित होना समझ में आता है, लेकिन मुझ जैसे, अड़ाबीड़ कुँवारे जंगलों के रचना-यांत्रिक के साथ यह घटित होना, मेरी समझ के बाहर होता जा रहा है । यहाँ जो किताब के विलम्बित होने के कारणभूत निजी संघर्षों और उलझावों का मैंने खुल कर जिक्र किया है, उसका एक बुनियादी कारण है । इस फ़ैफ़ियत से यह स्पष्ट होता है, कि एक ईमानदार, ग़ैर- दुनियादार, स्वप्नजीवी और एकनिष्ठ रचनाकार की रचना - यात्रा कितनी दुर्गम, दुरारोह होती है, कितनी तपस्याओं के अग्नि-वन और कितनी बाधाओं के विन्ध्याचल उसे भेदने पड़ते हैं । ऐसे में यह इतिवृत्त केवल मेरा नहीं रह जाता, हर सत्यव्रती रचनाकार की गर्दिशों का यह आइना हो जाता है । यह व्यक्ति 'मैं' का तारीफ़नामा नहीं, किसी भी आत्महोता रचनाकार की स्थिति का एक तद्गत ( ऑब्जेक्टिव) आलेखन है । वैसा आत्महोता मैं हूँ या नहीं, यह निर्णय मेरा नहीं, उन्हीं का हो सकता है, जो मेरे जीवन-व्यापी संघर्ष के अनवरत साक्षी रहे हैं। वैसे अपने बारे में खुल कर लिखने का साहस मुझ से सदा अनायास हुआ है । और यह मुझे स्वाभाविक ही लगता है। इसमें संकोच या दुविधा का अनुभव मुझे कभी न हुआ । मेरी यह प्रतीति है, कि हर सच्चे रचनाकार में यह निर्भीकता और बेहिचक साहस होना चाहिए, कि वह अपने सर्जक को अपने व्यक्ति 'मैं' से अलग करके देख सके । अहम् सम्बन्धी रूढ़ नैतिक मान्यताओं से ऊपर उठ कर जो सोहम् के चेतना स्तर से न बोल सके, वह एक मुक्त कलाकार कैसे हो सकता है ? एक बहुत संगत सवाल मेरे हर पाठक और समीक्षक की ओर से उठता नज़र आया है। ऐसा क्यों हुआ कि मूलत: तीन खण्डों में आयोजित कृति तीन खण्डों में समाप्त न हो सकी, और वह पाँचवें खण्ड तक खिंचती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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