Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 375
________________ सृजन की सब से बड़ी उपलब्धि हो सकती है। सर्जक व्यक्ति वीरेन्द्र यहाँ माने नहीं रखता, वह गौण है, वह माध्यम या ट्रांसमीटर या टेलीविजन मात्र है। जो उपलब्धि हुई है, जो सृष्टि या साक्षात्कार हुआ है, वही महत्वपूर्ण है। यशोगान उसी का हो सकता है, व्यक्ति वीरेन्द्र का नहीं। उसका नाम एक दिन काल की धारा में लुप्त हो जायेगा, लेकिन जो सत्ता का मैनीफंस्टेशन' (प्रकटीकरण) इस रूप में हुआ है, वही काल को चुनौती देता हुआ भी, महाकाल के पट पर अक्षुण्ण रहेगा : मनुष्य की असंख्य आगामी पीढ़ियों की रक्त-वाहिनियों में संसरित होता चला जायेगा। __बाद को आम्रपाली भगवान बुद्ध को समर्पित हुई, उनकी थेरी भिक्षुणी हुई, इस तथ्य और उपरोक्त सत्य में मुझे कोई विरोध नहीं दिखायी पड़ता। महावीर के ही उत्तरांशी (काउण्टर-पार्ट) बुद्ध के प्रति आम्रपाली का आत्मसमर्पण एक प्रकार से महावीर के प्रति उसके आन्तरिक समर्पण का ही, आगे जाकर एक तथ्यात्मक “मैनीफ़ेस्टेशन' (व्यक्तीकरण) हो जाता है। तब अनायास महावीर बुद्ध हो जाते हैं, और बुद्ध महावीर हो जाते हैं। व्यक्तित्वों का यह पारस्परिक अन्तःसंक्रमण तो आज के नवीनतम कहे जाते साहित्य में भी एक आम बात हो गई है। इत्यलम् । - श्रीभगवान वैशाली से कोशल देश की राजनगरी श्रावस्ती आये हैं । वहाँ का राजा प्रसेनजित तक्षशिला का स्तानक रहा था। पर उसकी चेतना पैशाचिक थी। वह भीतर में अत्यन्त कायर कापुरुष था। लेकिन उसकी सत्ता-लोलुपता और काम-लम्पटता का अन्त नहीं था। वह केवल अपने ही लिये जीता था : सारा जगत्, उसके सारे सौन्दर्य, ऐश्वर्य, सम्पदाएँ केवल उसके अपने लिए ही भोग्य पदार्थ मात्र थे। मानो कि सारी सृष्टि केवल उस अकेले के भोग के लिये ही बनी थी। अपने बाद के हर अगले पदार्थ और मनुष्य को, प्राणि मात्र को वह केवल अपने भोग और भक्षण की वस्तु समझता था। बिना बाहुबल, शौर्य और वीर्य के भी, वह अपनी राजसत्ता और सैन्य के बल पर ही सारी पृथ्वी का चक्रवर्ती हो जाना चाहता था। वह अहोरात्र आत्म-रति, हत्या, रक्तपात, बलात्कार और पाप के पंकिल कीचड़ में ही जीता था। इतना भय और आतंक उसने अपने आसपास उत्पन्न किया था, कि स्वयम् ही अपने आप से सदा भयभीत रहता था। इसी से श्रीभगवान के आगमन की ख़बर पाकर वह सर से पाँव तक थर्रा उठा था। उसके सारे पाप नग्न प्रेत-छायाएँ बनकर उसके आस-पास नाचने लगे थे। ऐसा यह प्रसेनजित बर्बर उपभोक्ता नारकीय चेतना का मूर्तिमान प्रतीक और प्रतिनिधि था। अतिभोग के कारण वह नपुंसक हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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