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जर्जर और जड़ीभत मृत जगत का प्रलय हुए बिना नये जगत का उदय कैसे हो सकता है। 'विश्वोदय-प्रलय नाटक नित्य साक्षी' की त्रिकालिक लीला ही मानो मगध-वैशाली के युद्ध में घटित होती है। और इस युद्ध के अनन्तर श्री भगवान जैसे ठीक नियति-निर्धारित रूप से निर्वाण की ओर महाप्रस्थान करते दिखायी पड़ते हैं : सिद्धालय में पलायन कर जाने के लिए नहीं, दीप-निर्वाण की तरह नहीं, बल्कि मोक्ष के कपाट तोड़ कर उसके सिद्धालय के अनन्त दर्शन-ज्ञान-सुख-वीर्य के अविनाशी ऐश्वर्य को अपने युग-तीर्थ की तमाम आत्माओं के भीतर अभिसिंचित कर देने के लिए। - तीर्थंकर वह, जो अपने देश-काल में एक नूतन सर्वत्राता युग-तीर्थ का प्रवर्तन करे। इसी महोद्देश्य की परिपूर्ति के लिए श्री भगवान् अपने समकालीन विश्व और समय के भीतर एक मूर्त प्रत्यक्ष, भौगोलिक और युगीन यात्रा भी करते हैं। जो तीर्थंकर युगावतार न हो, अपने युग और समय का अतिक्रान्तिकारी स्रष्टा और विधाता न हो, उसकी हमारे लिए क्या उपादेयता हो सकती है ? वह भले ही अपनी मौलिक आन्तरिक सत्ता में सर्वज्ञ अर्हन्त और सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी हो, लेकिन हमारे समय में जब तक उसकी यह इयत्ता और गुणवत्ता प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित न हो, तब तक हम तीर्थंकर महावीर को कैसे पहचान सकते हैं, उसे कैसे अपने और अपने समय के लिए सुलभ कर सकते हैं ?
यही 'अनुत्तर योगी' के रचनाकार का वह विज़न है, जिसके चलते यह ग्रंथ अनिवार्यतः और ठीक एक मूर्त ऋमिकता में पंचम खण्ड तक खिंचता चला जा रहा है। पंचम खण्ड के उपसंहार में, ठीक निर्वाण की उषःकालीन द्वाभा-वेला में अनायास प्रभु के श्रीमुख से अनेक भविष्यवाणियाँ उच्चरित होती हैं, जिनमें हमारे समय के इतिहास का भी अनावरण होता है, तथा हमारे काल के प्रमुख युगान्तरकारी व्यक्तित्वों, घट-चक्रों और मोड़ों पर भी प्रतीकात्मक प्रकाश पड़ता है।
___ मैं समझता हूँ, कि इस कैफ़ियत से पाठकों और समीक्षक-मित्रों को ग्रंथ के इस विस्तार और अमाप इयत्ता का कारण-विज्ञान अवबोधित हो सकेगा। इत्यलम्।
इस बीच प्रायः कई समझदार समीक्षक मित्रों को कहते सुना है कि 'अनुत्तर योगी' में अब तक उपलब्ध उपन्यास का स्वीकृत ढाँचा (स्ट्रक्चर) टूट गया है। कुछ लोगों ने यह प्रश्न भी उठाया है कि 'अनुत्तर योगी' को उपन्यास कहा जाये, या काव्य कहा जाये, या आखिर इसे क्या कहा जाये ? क्योंकि उपन्यास-विधा का प्रस्थापित स्वरूप इसमें हाथ नहीं आता। बल्कि
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