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'तू अपने घर लौट आया, वत्स। आनन्द !'
तभी स्त्री-प्रकोष्ठ में से उसकी वह विपथगा बहन बाहर छलाँग पड़ी। और झपट कर उसने भी प्रभू के चरण पकड़ लिये। पुकार उठी : ... ___'मेरे नाथ, मेरे अन्तर्यामी प्रभु, तुम से बिछुड़ कर ही तो मैं वासना के अँधेरों में तुम्हें खोजती भटक रही थी। तुम्हें न पा कर ही मैं व्यभिचारिणी हो गयी। स्वामी, मुझे अंगीकार करो। मेरे पापों को क्षमा कर दो !'
सहसा ही प्रतिसाद मिला :
'स्वैराचारी हुई तुम, कि अपने अन्तर्वासी प्रभु की सती हो सको। हर वासना के छोर पर, तुम्हारा प्रभु ही तो खड़ा है। तुम देख न सकीं ?
'देख लिया आज, इसी से तो दौड़ी आयी !' 'फिर पाप कैसा ? क्षमा कैसी?' 'जहाँ आप हैं नाथ, वहाँ पाप कहाँ ?' तभी वहाँ उपस्थित चार-सौ-निन्यानवे चोरों ने एक स्वर में कहा : ...
'प्रभु, इस संसार में अब हमारे लौटने को भी ठौर न रहा। हमारा क़िला टूट गया। हम अरक्षित हैं। राज्य की फाँसी हम पर झूल रही है। श्रीचरणों के सिवाय अन्यत्र त्राण नहीं!'
'फाँसी पर चढ़ जाओ तुम ! मत्यु के पंजे को देखो। उसे सहो। उससे छूट कर तुम यहीं गिरोगे। चार-सौ-निन्यानवे कोमल अङ्गनाओं ने दर्पणचक्र चला कर, अपने सत् के लुटेरे का मस्तक उतार लिया। अपने सत्य की आग में जल कर वे आत्माएँ अपनी ही सती हो गईं। अपने उस पुरुषार्थ को भूल गये तुम ?...
'सब याद आ रहा है, भगवन् । इसी से तो हम आज यहाँ हैं।' 'तो फाँसी स्वीकार लो। राजदण्ड की सीमा भी देख लो !'
चोरों ने जा कर राजा को आत्म-समर्पण कर दिया। चार-सौ-निन्यानवे फाँसियों पर झूलते गले, अचानक कहाँ गायब हो गये ? ...
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