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विचित्र लीला चैतन्य की : राजर्षि प्रसन्नचन्द्र
पोतनपुर के महाराज प्रसन्नचन्द्र ने बहुत वर्ष सुखपूर्वक राज्य किया । भंगुर ऐन्द्रिक सुख में भी अमरत्व का भ्रम होने लगे, इस हद तक उन्होंने पृथ्वी के सारभूत सुख भोगे । उनकी रानी चन्द्रनखा भी ऐसे शीतल स्वभाव की थी, मानो कि चन्द्रपुरी से ही आयी हो । राजा को उसका हर स्पर्श ऐसा जैसे उसमें चन्द्र किरणों का अमृत झड़ता हो ।
लगता,
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एक वसन्त ऋतु की चाँदनी रात में, राजा प्रसन्नचन्द्र महल की खुली छत के रत्न- पर्यंक पर अपनी रानी के साथ सोये थे । चाँदनी में वासन्ती फूलों की गन्ध कुछ सन्देश देती-सी लगी । राजा का आलिंगन एकाएक छूट गया। रानी उस ऊष्मा में अवश मूच्छित छूटी पड़ी रह गयी । राजा ने ग्रहतारा खचित आकाश को देखा । - लेकिन चन्द्रमा तो स्वयम् उनकी शैय्या में ही आ लेटा है ! कितने नक्षत्र - लोक, कितने जगत्, कितने भुवन, कितने ब्रह्माण्ड | अनन्त सामने खुल गया । सान्त का छोर राजा के हाथ से निकल गया ।
''' प्रसन्नचन्द्र को लगा कि इन अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों में उसका अस्तित्व क्या ! एक बिन्दु भर भी तो नहीं। तो उसका होना या न होना कोई माने नहीं रखता ? और राजा को अपनी अस्मिता शून्य में विसर्जित होती लगी । उसका 'मैं' उसे कपूर की तरह छूमन्तर होता अनुभव हुआ । "तो वह कौन है, और कहाँ टिके वह ? मृगशीर्ष नक्षत्र के मृग पर चढ़ कर, वह मानो अस्तित्व के छोर छू आया। आगे जो सीमाहीन का निस्तब्ध राज्य देखा, तो उस अ के समक्ष वह शून्य हो गया ।
... फूलों की शैया में लेटी परमा सुन्दरी रानी। आस-पास सजी नाना भोग- सामग्री । जलमणि की फुलैल - मंजूषा । नाना सुगन्ध, आलेपन, अलंकारों के खुले रत्नकरण्डक । ऐन्द्रिक सुख के अपार आयोजन। सब कुछ क्षण मात्र में दर्पण की प्रतिछाया-सा विलीन हो गया। सारे लोकालोक उसकी आँखों में नक्षत्रों की धूल से झड़ते दिखायी पड़े ।
...और यह चन्द्रनखा ? काल के प्रवाह में ऐसी जाने कितनी चन्द्रनखाएँ, हर क्षण तरंगों-सी उठ कर मिट रही हैं। इसके चरम तक जा कर भी, क्या
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