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अवधिज्ञान द्वारा वे पुत्र की इस हंस-लीला का निरन्तर अनुप्रेक्षण करते रहते । नेपथ्य में रहकर ही, पुत्र के रत्न-विमान जैसे विलास-महलों में, कल्प-वृक्ष की तरह सारी मनोवांछित भोग-सामग्रियाँ वे प्रकट करते रहते।
"इस भोग-चर्या में तल्लीन शालिभद्र ने, वर्षों से दिन का उजाला तक नहीं देखा था। भोग की लीनता में भी, वह एक और ही उजाला देखने में तन्मय था। सो बाहरी घर-संसार का सारा काम-काज भद्रा सेठानी ही चलाया करती थी।
अन्यदा हंस द्वीप का एक रत्न-व्यापारी, कुछ रत्न-कंबल ले कर श्रेणिकराज के दरबार में उपस्थित हुआ। उनका मूल्य इतना अधिक था, कि श्रेणिक ने उनका क्रय करने से इन्कार कर दिया। व्यापारी घूमता-घामता एक दिन शालिभद्र की हवेली पर आ पहुँचा। भद्रा सेठानी ने मुँह-माँगा द्रव्य दे कर वे रत्न-कम्बल ख़रीद लिये। योगात् एक दिन चेलना देवी ने महाराज से कहा : 'मुझे एक रत्न-कम्बल चाहिये।' राजा ने तुरन्त हंस द्वीप के रत्न-श्रेष्ठी को बुलवा भेजा। श्रेष्ठी ने कहा, अब वे रत्न-कम्बल कहाँ ! भद्रा सेठानी ने सारे ही तो ख़रीद लिये। "ओ, तो राजगृही में ऐसी भी कोई धन-लक्ष्मी है, जिसने वे सारे रत्न-कम्बल ख़रीद लिये, जिन्हें स्वयम् मगधनाथ भी न ख़रीद सका! आश्चर्य ! राजा ने तुरन्त एक दूत को सेठानी की हवेली भेजा, कि जो माँगे मूल्य देकर एक रत्न-कम्बल ले आये। भद्रा ने कहा : 'उन सारे रत्न-कम्बलों के टुकड़े कर मैंने अपनी पुत्र-वधुओं को पैर पोंछने के लिये दे दिये हैं। यदि उन जीर्ण कम्बलों से काम चल जाये, तो महाराज से पूछ आओ, और ले जाओ। मूल्य उनका हो ही क्या सकता है । शालिभद्र के भोग्य पदार्थ का मूल्य कौन चुका सकता है !'
"कौन है यह शालिभद्र, जिसके भोग और ऐश्वर्य ने सर्वभोक्ता श्रेणिक की सामर्थ्य को भी परास्त कर दिया? राजा ने सन्देश भेजा कि शालिभद्र आ कर उनसे मिले । वे उस लोकोत्तर युवा को देखना चाहते हैं। तब भद्रा सेठानी ने स्वयम् आ कर महाराज से नम्र निवेदन किया कि : ‘देव, मेरा पुत्र तो बाहरी सूर्य का उजाला देखता नहीं। बरसों हो गये, वह धरती पर चला नहीं। सो वह तो आ सकता नहीं। कृपा कर महाराज स्वयम् ही हमारे महल पधारें और शालिभद्र को अपने दर्शन से कृतार्थ करें।'
श्रेणिक अपनी जिज्ञासा को टाल न सके। वे नियत समय पर भद्रा के 'इन्द्रनील प्रासाद' में मेहमान हुए। वहाँ का स्वप्न-वैभव देख कर वे अवाक् रह गये। मानो अच्युत स्वर्ग के कल्प-विमान में आ बैठे हों। ऐसा अपार ऐश्वर्य, कि उसमें रमते ही मन विरम जाये, विश्रब्ध हो जाये। प्रासाद के चौथे खण्ड में सम्राट एक हंस-रत्न के सिंहासन पर आसीन हुए। नाना प्रकार से,
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