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आदि अनेक क्षुद्र जीवों तथा अनेक वनस्पति कायिक धान्य और शाकादि जीवों का संहार करने से क्या लाभ? उस तरह अगणित जीवों की हिंसा करने से, अपार पाप लगता है ।
ऐसे उन दयाभासी तापसों ने उस समय अपने आहार हेतु मारने के लिये, एक महाकाय हाथी को भारी-भारी साँकलों से बाँध रखा था। अचानक करुणामूर्ति महर्षि आर्द्रक की दृष्टि उस सांकलों में जकड़े हाथी पर पड़ गयी। वे चलते-चलते वहीं रुक गये। तभी आस-पास के अनेक वन्य और ग्राम्यजन वहाँ आ कर एकत्र हो गये । वे पाँच सौ मुनियों से परिवरित तेज:पुंज महर्षि आर्द्रक का अनेक प्रकार से वन्दन-पूजन करने लगे ।
उस निश्चल सुमेरु-से-खड़े करुणामूर्ति योगी को देख कर, लघुकर्मी गजेन्द्र की अन्त: संज्ञा जाग उठी। उसके मन में ऐसा प्रीति भाव जागा, कि यदि मैं मुक्त होऊँ, तो मैं भी जा कर इन भगवन्त की चरण-वन्दना करूँ । गजेन्द्र का यह भावोद्रेक चरम पर पहुँचा । वह विकल हो उठा । कि तभी हठात् उसके पैरों की सांकलें तड़ाकू से टूट गईं। जैसे गरुड़ के दर्शन मात्र से नागपाश छिन्न हो गया हो। वह मातंगराज मुक्त हो कर, विह्वल हर्षावेग के साथ मुनीश्वर के चरणों की ओर दौड़ पड़ा ।
लोग हाहाकार कर उठे 'हाय, यह अपने बन्धन का सताया प्रचण्ड बमहस्ती, अभी-अभी निश्चय ही इन मुनिराज को एक ही ग्रास में निगल जायेगा।' और वे सारे मानुषजन भय के मारे भाग खड़े हुए।
.....लेकिन महायोगी आर्द्रक तो अपने स्थान पर ही निष्कम्प खड़े रहे । उनके शिष्य भी जैसे ही अटल रहे। दूर खड़े लोग देख कर अवाक् रह गये । ...अरे यह क्या हुआ, उस गजेन्द्र ने नम्रीभुत हो, अपने कुम्भस्थल को नमित कर, अपनी सूंड़ उठा कर, श्रमण को प्रणाम किया। फिर सूंड नीचे की ओर पसार कर उनके चरणों का स्पर्श कर लिया। तब उस हस्ति को ऐसा अनुभव हुआ, कि वह अघात्य और अवध्य हो गया है। उसे कोई अब मारने में समर्थ नहीं ! कदली- कर्पूर जैसे उन चरणों के शीतल स्पर्श से, उसकी बह महाकाया रोमांचित हो आयी । उसने एक भरपूर दृष्टि से महर्षि को निहारा, और निर्बाध निराकुल हो कर अपने वन- राज्य में स्वच्छन्द विचरने लगा ।
मुनि के इस प्रभाव और हाथी के भाग निकलने से, बे दया-पालक तापस अत्यन्त क्रुद्ध हो गये । ने दाँत किट किटाते हुए, एक जुट हो कर, उस पांशुल पन्थचारी साधु पर आक्रमण करने को दौड़े आये । लेकिन निकट पहुँचते ही, जाने कैसे एक अन्तरिक्षीय मार्दव के स्पर्श ने उन्हें अश्रु-पुलकित कर दिया । एक अखण्ड निस्तब्धता में वे सारे तापस अपने ही स्थानों पर स्तम्भित हो, नम्रीभूत नतमाथ हो रहे । फिर उन्होंने समवेत स्वर में विनती की :
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