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...'ओ गरुड़, हठात् यह क्या हुआ। तुम आकाश के गहन नील में जाने कहाँ अन्तर्धान हो गये ! ."ओह, फिर वही निश्चेतन की तमसा का घनघोर अन्धकार घिर आया। मैं फिर प्रलय के मकर की डाढ़ों पर एकाकी लेटी हूँ। और मेरे ऊपर ना-कुछ में से लूमती आ रही हैं, वही भीषण काले चूंघटों वाली आकृतियाँ। भय, यातना, रोग, क्षय, विनाश, वियोग, शोक, मृत्यु की रहसीली डाकिनियाँ। और उनके अदृश्य पंजों के बीच चीत्कार करती, विलाप करती, त्रिलोक और त्रिकाल की समग्र मानवता, असंख्यात जीव-राशियाँ। देवों के कल्पकाम कमनीय स्वर्ग, नारकों के आक्रन्द करते नरक। सब केवल मरणाधीन, कालाधीन, कितने परवश, कितने लाचार !
- मेरी ही महावासना की कोख से जन्मी, अपनी इस प्यारी पृथ्वी की पुकार पर, मैं तुम्हारे सहस्रार के अमृत-स्रावी आलिंगन से छूट आई। जब तक मेरी यह मृत्तिका मर्त्य है, तब तक तुम्हारे आत्म-रतिलीन अमृत का मेरे मन कोई मूल्य नहीं। तब तक वह मेरे लिये अप्रामाणिक है, असिद्ध है, अविश्वसनीय है। मेरे रक्त-मांस की रति जब तक अतृप्त है, तब तक तुम्हारे पूर्णकाम शिव का अजित वीर्य मेरे मन निरी माया है, मरीचिका है, निरे शून्य का एक बबूला है। जो बरस न सके उस वृष की, मेरी सोमा को कोई चाह नहीं। . ..अरे देखो तो, मेरे अतल में से फिर उद्दाम उत्सर्पिणी लहरा उठी है। और मैं फिर अपने कक्ष में आ पड़ी हूँ। नागमणियों के पर्यंक की मन्दारशैया में एक हवन-कुण्ड खुल गया है। और उसके अगुरु-हव्य सुगन्धित हुताशन पर मैं चित्त पड़ी लेटी हूँ।
नहीं, अब मैं तुम्हें नहीं पुकारूँगी। मैं तुम्हारे साथ, तुम्हारे ख़तरनाक़ अगम्यों में चढ़ आई। लेकिन तुम मेरी मृत्यु की इस तमसान्ध गुहा में उतरने से डरते हो, मुकरते हो? तो तुम्हारे मृत्युंजयी कैवल्य पर, मैं कैसे विश्वास करूँ, महावीर ! मेरे नीवी-बन्ध की ग्रंथि को जो न भेद सके, उसके अनाहत पौरुष और पराक्रम का होना या न होना, मेरे लिये कोई माने नहीं रखता। ___ मैं इरावान समुद्र की इरावती बेटी अप्सरा : आम्रपाली। अजेय अनं गिनी ! हर आलिंगन को भेद जाने वाली सौन्दर्य और लावण्य की लहरीली मोहिनी! क्या तुम मुझे भेद सकोगे, मुझे बाँध सकोगे, मुझे जीत सकोगे? __ जीत सकते, तो मेरे द्वार तक आ कर भी, मेरे इस अन्तिम कक्ष में आने की हिम्मत तुमसे क्यों न हुई ? मेरी मोहिनी से डर गये तुम, ओ त्रिभुवनमोहन त्रिलोकीनाथ ? ...
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