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निष्पलक नासाग्र दृष्टि तले, एक अकारण मुस्कान खिली थी। ओंठ निस्पन्द थे। और न्यग्रोध के परिमण्डल में से सुनाई पड़ा :
'बहुत पहले की बात है, कल्याणी! पूर्वाश्रम में मैं पाटलिपुत्र का राजकुमार वैशाख था। युवा होकर मेरा मन कहीं किसी को खोजने लगा। पता नहीं, मुझे किसकी खोज थी। भीतर कहीं टीसता कोई अभाव, कोई रिक्त । एकदा वन-कोड़ा में वन-कन्या कनकधी को देखा। लगा, अरे यही तो है वह, जिसे मैं खोज रहा हूँ। और मैंने वहीं कनक से गान्धर्व-परिणय कर लिया। उसे इतना पाया, कि वह चुक गयी। फिर अवसाद। निर्वेद। प्रश्न कौंधता जी में : 'कनकश्री, तुम बस इतनी ही हो? तुम्हें पाते ही जाना चाहता हूँ, लेकिन तुम वहाँ नहीं हो, जहाँ मैं तुम्हें अशेष पाता ही चला जाऊँ।' मैंने कनक से कुछ कहा नहीं। वह मेरी उदासीनता को देख कर उद्विग्न ज़रूर थी। लेकिन मेरी व्यथा उस तक पहुँच न सकी। मेरा आत्म, उसके आत्म में संक्रमित न हो सका। उसने कुछ पूछा नहीं, पर चुप रह कर भी मेरे शरीर को जगाने में उसने कुछ बाक़ी न रक्खा । पर उसकी हर चेष्टा विफल हो गयी। पत्थर पर पानी। तब हार कर वह चुप उदास घलती रही।"
'उसी बीच मेरे गृहत्यागी बाल-सखा, युवा मनि सूर्यमित्र एक दिन अचानक हमारे आम्रकुंज में ध्यानलीन दिखाई पड़े। उनकी वह उन्मनी मुद्रा देख, मेरी सारी बेचैनी गायब हो गयी। एक गहरी शान्ति में मेरा मन, बहुत काल बाद बालकवत् सो गया। मुझे चरणों में उपस्थित जान, मुनि ने समाधि से व्युत्थान किया। मुझे देख प्रसन्न दिखाई पड़े। बोले :
'कनकधी को देने को क्या उत्तर है तुम्हारे पास, वैशाख ?' "जैसा, जो मैं सामने हूँ, वही तो !'
'तुम्हीं तो उसे खोज रहे थे? उसका क्या दोष ? क्या खोज रहे थे उसमें तुम?' . 'कैसा तो सूना-सूना लगता था। जी में तड़प थी कि कोई आये, और मेरे उस सूनेपन को भर दे !' . 'कनकश्री ने तुम्हारे उस सूनेपन को भर दिया?'
'मैं और भी अधिक अकेला हो गया, स्वामिन् । निरुपाय, निरुत्तर अकेला। जिसे कोई और न भर सके, ऐसा।'
'तुम्हारे उस रिक्त को, तुम्हारे अपने सिवाय और कौन भर सकता है ?' 'लेकन वह मैं कौन ? कैसे तो अविकल और अन्तिम जानूं उसे ?' 'निग्रंथ हुए बिना, भगवान् आत्मा का दर्शन कैसे हो!'
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