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रानी ने महीनों बाद मुस्करा दिया। पर भीतर उसके जी में आरी चल रही थी। महाराज ने अभय को बुला कर इस गुत्थी का हल पूछा। अभय ने कहा : 'यह तो बाँये हाथ का खेल है, तात। कल ही व्यवस्था हो जायेगी।' अगले दिन अभय ने महाराज के वक्ष पर नवनीत और दूध के छैने में हलका बादामी रंग डालकर, एक और वक्षदेश रच दिया। ऐसे कौशल से रचा, मानो कि ठीक उनके वक्ष का ही उभार हो। और उघाड़े शरीर वे शैया में लेटे रहे। संकेत पा कर एकान्त में, चेलना कैसी उत्कट वासना से राजा के उस उभराते मांसल वक्ष पर टट पड़ी थी। किसी डाकिनी-शाकिनी की तरह उस उफनाती गोरी छाती का भक्षण करने लगी थी। राजा बार-बार कुशल नट की तरह कराह कर मूच्छित होते रहते । रानी को उससे बड़ी सान्त्वना मिलती। अचानक उसका हृदय कम्पायमान हो जाता। एक टीस के साथ वह गर्भ की कसक का उल्लास अनुभव करती ।
जब वह पति का मांस खा कर अघा गयी, तो छिटक कर खड़ी हो गयी और सचेतन होकर वह आनन्द कर उठी : 'हाय, मैं पति का हनन करने वाली पापिनी !' और वह चीख कर मूच्छित हो गयी। राजा ने उसे बहुत प्यार से हौले-हौले सहलाते हुए चेतन किया और कहा : 'देखो, मेरा यह अक्षत शरीर। तुम इसे खा गई, और मैं अक्षत हो गया ! यह है देवी की वासना का चमत्कार!' देवी के हर्ष का पार न रहा। अपने पति के उस सीने पर वह तब आनन्द से मूच्छित हो ढलक गई थी।
नव मास पूरे होने पर, मलयाचल की भूमि जैसे मणिधर नाग को प्रसव करती है, वैसे ही रानी ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। लेकिन उसने उसका मुंह तक देखना नहीं स्वीकारा। तत्काल अपनी गुप्त दासी से कहा कि-'यह बालक अपने पिता का वैरी है, सो इस पापी को सर्प के बच्चे की तरह कहीं दूर के स्थान में छोड़ आ ।' दासी उसे ले कर अशोक वन की भूमि में छोड़ आई। वहाँ उपपाद शैया में उत्पन्न देव की तरह वह प्रकाश करता शोभने लगा। बालक को छोड़ कर लौटती दासी से राजा ने पूछा : 'तू कहाँ गई थी?' महाराज की आँखों का दर्प देख वह काँप गयी। उसने भेद खोल दिया। राजा तुरन्त अशोक वन में गये। पुत्र को देख, स्वामी के प्रसाद की तरह उसे प्रीति से दोनों हाथों में ग्रहण कर लिया। हाथों में शिश को उठाये वे सीधे चेलना के प्रसूति-कक्ष में आये। कातर हो कर कहा : 'यह क्या अनर्थ किया तुमने, प्रिये ! कुलीन और विवेकी हो कर तुम ऐसा कैसे कर सकी ? अधम से अधम नारी भी ऐसा नहीं कर सकती। फिर तुम तो रमणियों के बीच राजेश्वरी हो। और तुम्हारा तो रमणीत्व भी माँ की ममता का अशोक वन है। ऐसी माँ हो कर, ऐसा कर सकीं तुम, छि:!'
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