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..."उषीर और मलय से सुगन्धित, ये कैसी पानी भरी आंधियाँ एकाएक मेरे इस कक्ष में घुस आई हैं। मेरे इस नागमणि के पर्यंक को वे हिला रही हैं। सारा कक्ष अपनी तमाम रत्न प्रभाओं के साथ चंचल, स्पन्दित हो उठा है। यहाँ की हर वस्तु चिन्मय, चौकन्नी हो गयी है। कुछ भी जड़ नहीं दीखता, सब चेतन हो गया है। वह इन्द्रनील और मर्कत मणि का विशाल मयूर, पंख डुला कर नाच उठा है। इन छतों की शंख-रत्निम झूमरों में नाना-रंगी प्रभाएँ गा उठी हैं। स्फटिक के आलय में पड़ी मेरी चित्ररथ-वीणा में 'शिवरंजिनी' की विरह-रागिनी अनन्त हो उठी है। ओह, यह कैसा प्रदेशान्तर घटित हो रहा है। सारा बाहर, भीतर आ गया है : सारा भीतर, बाहर निकल पड़ा है। सारी प्रकृति, सारे वन-कान्तार, बाहर के सारे उद्यान, भवन, केलिकुंज इस कक्ष में आ गये हैं। और मेरा यह कक्ष बाहर निकल कर, निखिल के बीच अधर में तैर रहा है । क्या मैं अपनी ऊष्म शैया में नहीं हूँ ? हाय, मेरा वह गोपन एकान्त भी मुझ से छूट गया? अपने निजत्व की ऊष्मा, मेरी आत्मा ही क्या मुझ से छिन गई ?
एक ऐसी विधुरा, वियोगिनी मैं, जिसका 'मैं' तक हाथ से निकल गया है। जीने का कारण, आधार, ध्रुव तट-सब लुप्तप्राय है। मैं कोई नहीं, कुछ नहीं, निरी अनाम, अरूप, असत्ता, अवस्तु । परात्पर विरह की इस रात्रि का क्या कहीं अन्त नहीं ?
एक दिगन्तहीन समुद्र के हिल्लोलन पर एकाकी लेटी हूँ। इस अन्तहीन जल-वन के नील नैर्जन्य में इतनी अकेली हो पड़ी हूँ, कि या तो ओ मेरे युग्म-पुरुष, तुम्हें तत्काल आना होगा, या मेरे साथ ही इस सृष्टि को भी समाप्त हो जाना पड़ेगा। यह वियोग का वह अन्तिम एकल किनारा है, जहाँ से मृत्यु भी भयभीत और पराजित हो कर भाग गयी है। मेरी सत्ता शून्य में विसर्जित होती जा रही है। आह नहीं, नहीं, नहीं, मैं चुकुंगी नहीं। ओ पूषन्, यदि तुम अमर हो, तो तुम्हारी जनेत्री यह पृथा भी अमर है। तुम सत्ता-पुरुष हो, तो मैं तुम्हारी सत्ता हूँ। तुम ध्रुव हो, तो मैं तुम्हारे होने का प्रमाण हूँ, चंचला, शाश्वत लीला। तुम विशुद्ध द्रव्य हो, तो मैं तुम्हारा द्रवण हूँ, स्वाभाविक परिणमन हूँ, जिससे सृष्टि सम्भव है। नहीं, मैं चुकूँगी नहीं। मैं तुम्हारे निश्चल ध्रुव को अपने बाहुबन्ध में गला कर रहूँगी। तुम्हारे ऊर्ध्वरेतस् वृष के वर्षण की चिर प्यासी सोमा, मैं हूँ तुम्हारी अर्धांगिनी योषा। तुम्हारी अशनाया, तुम्हारी अन्तःसमाहित वासना, तुम्हारी संगोपित इन्द्रशक्ति, ऐन्द्रिला। तुम्हारे अतीन्द्रिक अन्तस्-रमण की एकमेव इन्द्राणी। मेरी सारी इन्द्रियाँ जहाँ अपनी सम्पूर्ण विषय-वासना से एकत्र हैं इस क्षण, मेरे उस कटिबन्ध पर तुम्हें उतरना होगा, ओ अतीन्द्र, इन्द्रियजयी इन्द्रेश्वर ! मेरी
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