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'हाँ हाँ बेशक, तुम्हारे होते हमें राज्य की चिन्ता भी क्यों रहनी चाहिये । तुम स्वयम् ही हमारी राज्य लक्ष्मी हो। हमारी संरक्षिका भवानी हो । अच्छा हुआ, आज हम तुम्हारे पास आये । बड़ी राहत महसूस होती है ।' रानी की छाती भर आई । वह भरे कण्ठ से बोली :
'मैं कृतार्थ हुई, नाथ । '
कुछ देर ख़ामोशी व्याप रही । तब प्रसेनजित पूरी तरह सम्हल कर बोला : 'सुनता हूँ महादेवी, निगंठनातपुत्त महावीर श्रावस्ती आ रहे हैं ?'
'सुना ही नहीं, उनके हमारी ओर आ रहे चरणों की चाप को प्रति क्षण अपने अंगों में महसूस करती हूँ । उनके दर्शन के लिये मेरी आँखें, प्यासी चातकी की तरह आकाश पर लगी हैं । धन्य भाग्य, कि परम भट्टारक भगवान् महावीर हमारी भूमि को पावन करने आ रहे हैं ।'
राजा सन्नाटे में आ कर क्षण भर स्तब्ध हो रहा । फिर अपने उभरते रोष पर किसी क़दर नियंत्रण कर के बोला :
'लेकिन हमारे आराध्य गुरु महावीर नहीं, तथागत बुद्ध हैं, यह तुम कैसे भूल जाती हो ?'
'मेरा मन जाने कैसा है, कि मैं भगवत्ता में कोई भेद नहीं देख पाती, नाथ। जब तथागत बुद्ध को देखती हूँ, तो तीर्थंकर महावीर की छबि मेरी आँखों में झूल उठती है । और जब महावीर की कथा सुनती हूँ, तो मुझे भगवान् बुद्ध बरबस अधिक प्रिय हो जाते हैं । '
'एक म्यान में दो तलवार? यह हमारी समझ से बाहर है, देवी ! ' 'मेरी समझ इस जगह समाप्त हो जाती है, देवता । बस, केवल जो लगता है, वही कह रही हूँ । यह ऐसा बिन्दु है, जहाँ म्यान और तलवार मुझे एकमेव दीखते हैं । सत्य की तलवार एकमेव और नग्न है : ठीक महावीर की तरह। वह कोई कोश या म्यान नहीं स्वीकारती ! '
राजा के घायल मन पर चोट हुई, कि उसकी अंकशायिनी उसे उपदेश पिला रही है । फिर भी अपने रोष पर संयम करके प्रसेनजित बोला :
' तुम्हारी ये रहसीली बातें हमें कभी समझ में नहीं आईं, मल्लिका । हवा में तीर मारना, प्रसेनजित को पसन्द नहीं । दो टूक बात ही एक राजा कर सकता है।'
'नाराज़ हो गये, देवता ? मैं तो दो-टूक भी नहीं, केवल एक टूक बात कर रही हूँ ।" यही कि जब सबेरे उठ कर मैं - 'नमो भगवतो अर्हतो, सम्बुद्धों'
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