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सर्व-ऋतु वन का उत्तर
चेलना के 'एकस्तम्भ प्रासाद' के चारों ओर एक सर्व ऋतुओं का वन है। इस 'सर्व-ऋतु वन' के किसी विजन प्रदेश में देवी चेलना एक प्रवाल की प्रकृत चट्टान पर अकेली बैठी है। हवा में एक बारगी ही सारी ऋतुओं के फूलों और फलों की सुगन्ध महक रही. है। दूर-दूर से रंग-बिरंगी चिड़ियाएँ आ कर चेलना के केशों में बैठ कर चहकती हैं, उसके कंधों पर नाचती हैं, उसके आँचल और गोदी में खेलती हैं। जब चाहे किसी चिड़िया को ले कर वह उसे प्यार करती है, उससे बतराती है। चिड़िया उड़ नहीं जाती, अभय हो कर उसकी कलाई पर लिपट जाती है।
दूर पर कहीं चौकड़ी भरते हिरन और बारहसिंगे अनायास आ कर उसके आसपास किलोल करते हैं। उसकी हथेली की परस-पुचकार पा कर उनका प्राण आश्वस्त हो जाता है। वे आनन्द से विभोर हो कर देवी के चहुँ ओर क्रीड़ा करते हैं। नन्हें मुलायम खरगोश आ कर उसके जानुओं में दुबक जाते हैं, उसके सीने से चिपक जाते हैं।
दूर पर पंच-शैल के शिखर पुकार रहे हैं। विपुलाचल की वनानियों में तीसरे पहर की मुलायम धूप केशर बरसा रही है। सुदूर तलहटी की अंजन छाया में, गृध्रकूट के सिंह नील गायों के साथ क्रीड़ा करते दीख पड़ते हैं।
चेलना प्राय: अमनस्क ही रहती है। कुछ सोचती नहीं, याद नहीं करती। बस, देखती है । देखती है—एक सामने बहती नीली नदी। उसकी सहज शान्त लहरों में कुछ बीतता ही नहीं। जो था, जो है, जो हो रहा है, जो होगा, वह सब इस नदी में एक साथ वर्तमान है। इसी क्षण पूरा जिया जा रहा है।
चेलना की अर्ध उन्मीलित आँखों में इस समय झलक रहा है : श्रीभगवान के समवसरण से लौट कर सम्राट श्रेणिक सिंहासन पर कभी न बैठे। सिंहासन की पीठिका में पन्ने का एक अशोक-वृक्ष उगा दिया गया है। उसमें लटक रहे हैं तीन विशाल छत्र। उनके तले तीर्थंकर महावीर की एक बोलती-सी पूर्णाकार स्फटिक मुर्ति सम्बोधन मुद्रा में विराजमान है। सिंहासन के पायदान में सुवर्णपट्टिका पर एक ही सरोवर में पानी पीते सिंह और गाय अंकित हैं। पादवेदी के किनारे मणि-मीना खचित अष्ट प्रातिहार्य शोभित हैं। वेदी के मध्यभाग में अखण्ड दीप जलता रहता है, अखण्ड धपायन पावन गन्ध बसाये रखता है।
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