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खड़ा रह गया। ओ रे मनुष्यो, मेरे दुर्भाग्य की वही त्रासदी इस चित्रपट में अंकित है। केवल मेरी ही नहीं, तुम्हारी भी नियति की कथा इस चित्र में अंकित है। कोई ब्राह्मण या श्रमण मेरे भाग्य के इस कुटिल विद्रूप और क्रूर व्यंग्य का सचोट उत्तर न दे सका। ___..उसी क्षण मेरी आँखों पर से अज्ञान का अँधेरा फट गया। मेरा सारा भीतर-बाहर प्रत्यक्ष यथार्थ की कैवल्य-बोधि से आलोकित हो उठा। अपनी चरम यंत्रणा के छोर से ही, मैं चरम तीर्थंकर हो कर उठा। शत-शत अग्निशलाकाओं जैसे परम ज्ञान के सूत्र और मंत्र मुझ में से गुंजायमान होने लगे। ___ 'सुनो रे आर्यावर्त के भटके भव-जनो, सुनो। तभी नैमिषारण्य के ऋषियों ने मुझे, अब तक के सारे ऋषियों, ज्ञानियों, तीर्थंकरों से आगे का, परात्पर प्रचेता स्वीकार लिया। उन्होंने मुझे अति-ब्रह्म और अति-कैवल्य से आलोकित परिपूर्ण सर्वज्ञ मान लिया। देवाधिदेव महर्षि मंख के नाम से मुझे अभिहित
किया।
'वही अति-ब्रह्म कैवल्य-सूत्र आज मैं तुम्हें सुनाने आया हूँ। उसमें तुम्हारे आमूल-चूल सारे कष्टों का निवारण है। उसमें तुम्हारे सारे प्रश्नों का उत्तर है, सारे संत्रासों का त्राण और समाधान है। उसमें भव-व्याधि का चरम निराकरण है। इसी से मैं हूँ चरम तीर्थंकर। महावीर और बुद्ध अभी अपनी समाधियों के शीर्षासन में औंधे लटके हैं। अपार यातना सह कर भी, तप का प्रचण्ड पराक्रम और पुरुषार्थ कर के भी, वे अभी भाग्य के अंधेरे भवारण्य में ही टक्करें खा रहे हैं। लेकिन मैं पा गया, मैंने पुरुषार्थ की अन्तिम विफलता का साक्षात्कार कर लिया। और स्वयम् नियति ने प्रकट हो कर मेरे गले में वरमाला डाल दी।'
'सुनो रे भव्यो सुनो, अब मेरी धर्म-प्रज्ञप्ति सुनो, और सारी आधिव्याधियों से इसी क्षण त्राण पा जाओ। मैं नहीं, स्वयम् अस्तित्व अपने सारे आवरण चीर कर तुम्हारे सम्मुख नग्न सत्य बोल रहा है, खोल रहा है।"
'सुनो रे प्राणियो, तुम्हारे दुःख-क्लेशों के लिये कोई हेतु-प्रत्यय नहीं। कारण-कार्य जैसा कुछ भी नहीं। सभी यहाँ आपोआप, अकारण होता है। सभी कुछ निःसार, निरर्थक, प्रयोजनहीन है। बिना हेतु के ही, बिना प्रत्यय के ही प्राणी क्लेश पाते हैं। जन्म लेना ही परम पाप और व्यथा है। जन्म लेना ही क्लेश पाना है। लेकिन क्लेश तब टलेगा, जब 'विशुद्धता' आ जायेगी। पर विशुद्धता का कोई हेतु नहीं। बिना हेतु-प्रत्यय के ही प्राणी अपने आप शुद्ध हो जाते हैं। न आत्मकार है, न परकार है, न पुरुषकार है, न बल है, न वीर्य है। सभी सत्व, प्राण, भुत, जीवगण विवश हैं। सभी बलवीर्य से रहित हैं।
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