________________
३८
मानवी-और वह भी वेश्या आम्रपाली के लिये सम्भव नहीं है। यह प्रश्न मेरे लिये नया नहीं। जब से तुम्हें चाहने की त्रासदी मुझ से हुई, तभी से यह प्रश्न मुझे हर पल कचौटता और खाता रहा है। लेकिन शायद इसका उत्तर तुम्हारे पास नहीं !
जान पड़ता है, भगवान् केवल प्रश्न खड़े करता है, वह स्वयम् एक महाप्रश्न है। उत्तर देने का कष्ट करना शायद उसे गवारा नहीं।
फिर भी पूछती हूँ :
नर-नारी के भीतर जो आत्म है, वही क्या भगवान् नहीं है फिर उनके बीच, किसी अन्य पुरुष बाहरी भगवान् के खड़े होने की क्या ज़रूरत है ? क्यों प्रणय-कामी युगल स्वतन्त्र नहीं, एक-दूसरे के भीतर अपने ही आप्त-स्वरूप को पा लेने के लिये ? क्यों नर-नारी ही एक-दूसरे के आत्म-दर्पण नहीं हो सकते ? क्यों नर-नारी ही एक-दूसरे के भगवान् और भगवती नहीं हो सकते ? उनके बीच क्यों एक बाहरी भगवान् आयात करना जरूरी हो ? क्या हर स्त्री-पुरुष अपने आप में ही आप्तकाम नहीं ? फिर यह भगवान् की उपाधि हमारे बीच क्यों ? जो भगवान् पुरुष और योषिता को अनन्त वियोग के समुद्र में डुबा देता है,
वह मुक्ति नहीं, बन्धन है।
वह तारक नहीं, मारक है। इसी से आज भगवान् मात्र को अपने बीच से हटा कर, मैं तुम से एक निपट मानवी नारी की तरह, सीधी और साफ़ बात कर लेना चाहती हूँ। इस क्षण तक भी लज्जा का कोई सूक्ष्म अज्ञात आवरण हमारे बीच रहा है। अब मैं सारे आवरणों को छिन्न करके, आज परम निर्लज्ज रूप में तुम्हारे सामने आना चाहती हूँ। तुम तो त्रिकाल-द्रष्टा, सर्वदर्शी केवलज्ञानी हो। तुम्हारे उस अव्याबाध ज्ञान में तो अनाद्यन्त देश-कालों की सारी लीलाएँ हर क्षण झलक रही हैं। तो सम्भव नहीं, कि तुम इस वक्त इस कक्ष में
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org