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केशरी बारह पंखुरियों पर से---कं,खं,गं,घ,ङ,चं,छं,जं,झं,ज,टं,ठं--मंत्राक्षर कुंकुमी राग में गा रहे हैं। फलावरण में षट्कोण वायु-मण्डल जल-छाया से कान्तिमान है। उस पर त्रिकोणाकार सूर्य-मण्डल, दस हजार विद्युल्लेखाओं से जाज्वल्यमान है। उसके ऊपर जलकान्त श्यामल वायु-बीज 'य', कृष्णसार मृग पर आरूढ़ हैं। प्रीति की कस्तूरी का मर्म-देश !
देख रही हैं, वायु-बीज की गोद में हंसोज्ज्वल, त्रिनयन ईश बिराजित हैं। उनकी गोद में रक्त-पद्म पर बैठी है काकिनी शक्ति। उसका हृदय अमृतपान से सदा आर्द्र, आप्लावित रहता है। वह सदा अमृत-सुरा के नशे में झूमती रहती है। उसके योनि-पद्म पर वानलिंग के रूप में विराजित हैं, परशिव महेश्वर। मस्तक पर बिन्दु-संयुक्त अर्द्धचन्द्र धारण किये, वे कामोद्गम से उल्लसित हैं। मेरे हृदय के कमल-कोरक में से उद्भिन्न मेरे कामेश्वर ! मेरे ही आत्मज, मेरे उत्संग के स्वामी। असंख्य कामिनियों के स्वप्न-पुरुष, जिनके चरणों पर लोक का समस्त नारीत्व पल-पल निछावर है। त्रिलोक और त्रिकाल का एकमेव मदनमोहन : मेरे हृदय-पद्म पर सदा के लिये आसीन ! इसकी मोहिनी दिव्य-ध्वनि से, तमाम चराचर के हृदय जलौघ की तरह हिल्लोलित होने लगते हैं। परम काम और प्रेम से उल्लसित होने लगते हैं। इसकी वाणी से कण-कण रोमांचित हो जाता है। वह त्रिलोकी का वल्लभ, आज केवल मेरे उरोजों पर आरूढ़ ! मैं आम्रपाली, लक्ष्मी, शिवानी? कोई नहीं : केवल ह्लादिनी शक्ति । परात्परा नारी।।
और तुम्हारे पद्मासन से आलोड़ित मेरे उरोज, अन्तरिक्षों को अपनी विशुद्ध वासना से विक्षुब्ध करने लगे। वे अगम्य ऊों के मण्डलों को आरपार वेधने लगे।
.."अरे, यह कौन मुझ में आकण्ठ भर आया है ? जाने कैसी परा सम्वेदना से मेरा कण्ट अवरुद्ध हो गया है। मेरी ग्रीवा में ऐसा वेगीला कम्पन है, डोलन है, कि जैसे मेरा मस्तक गले से उच्छिन्न हो कर, किसी ऊपर के वलय में उत्क्रान्त हो जाना चाहता है। मेरे प्राण ने अपना स्थान छोड़ दिया है। मेरी साँसें रुद्ध हो कर, मूलाधार के कुम्भक में स्तब्ध हो गई हैं। नहीं, अब 'अनाहत हृदय-कमल' में रुकना सम्भव नहीं। वह सम्वेदन पीछे छूट गया है। एक ओंकार ध्वनि में से उठती शलाका मेरी ग्रीवा को भेद रही है, छेद रही है। कण्ठ-वेध, कण्ठ-वेध, कण्ठ-वेध ! मेरी कम्बु-ग्रीवा का शंख घनघोर नाद करके फूट पड़ा। मैं एक क्षीर-समुद्र में मग्न हो गई। और हठात् उसमें से उन्मग्न हो कर ऊपर उठ आई। तो पाया, कि एक धूमिल बैंजनी रंग के प्रान्तर में खड़ी हूँ। अहो, 'विशुद्ध चक्र' का प्रदेश ! सामने देख रही हूँ, सोलह पाँखुरियों
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