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: भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, राग-द्वेष, हर्ष-विषाद, सुख-दुख, कुछ भी अनुभव नहीं होता। दिव्य कल्प-भोजनों के थाल अछूते लौट जाते हैं। सोम-कुम्भों की सदियों पुरानी मदिराओं के उपल चषक मेरा मुँह ताकते रह जाते हैं। सुबह-साँझ सैरन्ध्रियाँ स्नान-सिंगार करा देती हैं। टीसते हृदय की पीड़ा को चंचल हँसी में बदल कर पूछती हूँ उनसे : 'किस प्रीतम के लिये मेरा शृंगार करती हो ?' मेरे प्रश्न का वे क्या उत्तर दें ? बस, अजीब व्यंग्य से खिलखिला कर हँस पड़ती हैं। एक नगर-वधू का श्रृंगार, भला किस प्रीतम के लिये हो सकता है ? ____ तुम ज्ञानी हो, मैं निरी कामिनी हूँ। तुम यदि पूर्णकाम हो, तो मैं भी पूर्णकामिनी हूँ। क्या अपने एकमेव काम-पुरुष के भीतर ही, मैं सम्पूर्ण चेतना से नहीं जी रही? तुम वीतराग हो, तो मैं पूर्णराग हूँ। तुम ज्ञानयोगी हो, तो मैं काम-योगिनी हूँ। तुम त्रिलोक और त्रिकाल को हर क्षण देख और जान रहे हो, तो मैं केवल तुम्हें हर क्षण देख और जान रही हूँ। इस क़दर, कि मैं नहीं रह गयी हूँ, केवल तुम्हीं रह गये हो। तुम्हें देखने, जानने और पूर्ण पा लेने की इसी अभंग तन्मयता ने, मेरे 'मैं' को मिटा कर केवल 'तू' बना दिया है। ऐसा लगता है हर पल, कि मेरा काम ही मेरा ज्ञान हो गया है, मेरा ज्ञान ही मेरा काम हो गया है। परम एकाग्रता और संयुति के इस मांसल काम-तट पर ही, मेरे लिये काम और ज्ञान का भेद और विरोध समाप्त हो गया है।
तुम न भी आओ कभी मेरे पास, तुम न भी बँधो कभी मेरे बाहुबन्ध में, लेकिन मेरे इस अप्रतिवार्य काम को तुम कहाँ से तोड़ोगे, जो तमाम चराचर में व्याप्त हो गया है, और जो लोकालोक की सीमाएँ लाँघ गया है । जो स्वयम् महासत्ता को, शेषनाग के सहस्र-फणों से घेरे बैठा है । तुम्हारी वह अर्द्धचन्द्रा सिद्धशिला भी मेरे महाकाम के इस नागचूड़ से मुक्त नहीं, जहाँ सिद्ध हो कर तुम आरूढ़ होने वाले हो, और जन्म-मरण से परे जा कर, जहाँ से तुम कभी फिर उस रूप में लौटने वाले नहीं हो, जिस रूप ने मेरे काम को ऐसा दुर्दान्त और अनन्त बना दिया है। . लेकिन सुनो मेरे मोक्षगामी स्वामी, मेरे श्रोणि-फलक पर के आम्रकट को जय किये बिना, तुम अपने मोक्ष की उस सिद्धशिला के मणि-पद्म पर आरोहण न कर सकोगे। इरावान् समुद्र की इरावती बेटी आम्रपाली के अतल देश की फणिधर-मण्डित गोपन गुहा-मणि को बींधे बिना, तुम अपनी चिर चहेती प्रिया मुक्ति-सुन्दरी का वरण न कर सकोगे। मेरे काम को सम्पूरित किये बिना, तुम्हारा कैवल्य आप्तकाम न हो सकेगा। मुझे अपनी अर्धांगिनी बनाये बिना, तुम अपने सिद्धालय की मुक्ति-रमणी के उत्संग में आरूढ़ न
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