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नहीं हो, और मेरी इस अन्तिम निर्लज्जता और नग्नता के साक्षी नहीं होओगे। __ ..मेरी व्यथा-कथा का अन्तिम निवेदन सुनो, महावीर ! आम्रवन के तलदेश में अनाथ पड़ी पायी गयी शिशु अम्बा, जब महानाम सामन्त के घर में पल कर परमा सुन्दरी किशोरी हो गई, तभी से सारी वैशाली की गृद्ध दृष्टि, उसे अपने गण की जनपद-कल्याणी बनाने को तुल रही थी। और सोलहवें बरस की सोलहों कलाओं में विकसित अपने रूप और यौवन पर, मैंने जब हज़ारों पुरुषों की आँखों में एक ही पशु झाँकता देखा, तो उस बाल्य वय में ही पुरुष मात्र के प्रति मुझे घृणा हो गई। उन्हीं दिनों महानाम बापू, वैशाली के यायावर राजपुत्र महावीर के दुःसाहसिक भ्रमण-वृत्तान्त मुझे सुनाया करते थे। सुनती थी, कि तुम्हारे दर्शन तक दुर्लभ हैं। वैशाली के देवांशी राज पुत्र ने, कभी वैशाली का मुंह तक नहीं देखा। वह गुंजान अगम्य अरण्यों में, और अजेय पर्वत-शृंगों पर सिंहों से खेलता है, और उन पर सवारी करता है। उसके बालापन में, जनपद की हर कुमारिका और रमणी, उसे अपना स्तनपान कराने को तरसती, और उसके पीछे भागी फिरती थी। तुम्हारा हर क़दम एक उपद्रव होता था। तुमने राजमहालय की सारी मर्यादाएँ तोड़ दीं। अन्त्यज चाण्डालों और कसाइयों तक के घर-आँगनों में तुम खेलते थे। तुमने कुण्डपुर के महालय का प्राणि-उद्यान लीला मात्र में उजाड़ दिया। तुमने वैशाली को गणतंत्र नहीं, राजतंत्र प्रमाणित किया। तुम अपने ही कुल-गोत्र, घरपरिवार और अपने ही राज्य तथा सिंहासन के विरुद्ध उठे। सुनग्ना प्रकृति के विराट् सौन्दर्य-प्रदेशों में, अवारित भ्रमण ही तुम्हारी एक मात्र क्रीड़ा थी।
इन सारी कथाओं ने जिस एक कुमार की छबि मेरी आँखों आगे खड़ी कर दी थी, उसने मानो त्रिकाल के पुरुष मात्र को मेरी निगाहों से ओझल कर दिया। मेरी योनि पुकार कर कह उठी, यही मेरा एकमेव पुरुष है ! यही मेरी त्रिवली के चित्रकूट का एकमात्र विजेता है। देह, प्राण, इन्द्रिय, मनस्, चेतस् और चैतन्य आत्मा के सारे भेदाभेदों से अपरिचित, मैं निरी एक तीव्र संवेदनशील लड़की थी। मेरी देह ही इतनी संस्पर्शी थी, कि उसी के रोम-रोम से मैं सृष्टि को छू लेती थी, पीती रहती थी। सो मेरी देह के हर परमाणु में, अनुक्षण, दिन-रात तुम्ही रमण करने लगे। जब कि तुम मेरे लिये मात्र दन्त-कथाओं के अवास्तविक पुरुष थे।
फिर मेरे नगरवधू चुने जाने का मुहूर्त आया । वैशाली की सड़कों में खंखार भेड़ियों को, मैंने अपने रूप के लिये लड़ते देखा । गणतंत्री लिच्छवियों के संथागार में, वृषभदेव के सिंहासन पर मेरी बलिवेदी बिछाई गई । और ठीक एक बलि-पशु की तरह, आदि ब्रह्मा ऋषभनाथ के साक्ष्य से मुझे वैशाली
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