Book Title: Anusandhan 2013 03 SrNo 60
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
१७५
जान्युआरी - २०१३ आश्लिष्यदेष विधुरङ्कमिषाद् यदंहि
___ पद्मं सदा स्मितसरोभवकान्तकान्तिम् । दृश्यां दिदृक्षुरिव जात्वनवेक्षितां तां,
नीयात्तमां स भवतां क्षयतामजन्यम् ॥१३॥ लक्ष्मच्छलाद् विधुरदीधरदेष किं नो,
____ यत्पद्युगोपरिसुसूनकलापकान्तिम् । पश्यत्तमांबकमुदं सततं नयन्ती
___ मर्हन् स लम्भयतु तानवमेनओघम् ॥१४॥ लक्ष्मोपधेर्यदतिसुन्दरपादसङ्ग,
लब्ध्वाऽपि वीक्ष्य भुवनत्रयकुक्षिगानाम् । पुजैर्दृशां कुमुदितं विधुमाशुपश्यैः,
सौभाग्यभाग्यचणमीहितदः स वः स्तात् ॥१५॥ दम्भं विधाय न विधुः किमु लाञ्छनस्य,
सेवां व्यधत्त भुवि जेतुमनाः स्वशत्रुम् । यत्पादपङ्कजयुगस्य विधुं तुदन्तं,
हन्यात्तमां स तमांसि वितमा वितानम् ॥१६॥ संसारजीवननिधौ वरपोतदंहि
युग्मं विधाय किमु लाञ्छनदम्भमिन्दुः । भेजे यदीयमिह तत्परपारलिप्सुः,
श्रेयांसि वः प्रदिशतात् स सदा जिनेन्द्रः ॥१७|| सा सौम्यता न किमधारितमां यदङ्ग
सङ्गेन्दुना समजनाम्बकमोदिनीयम् । पादावुपास्यजगतीह सदङ्कदम्भा
__ ज्जीमूततात् स भवतां भविकव्रतत्याम् ॥१८॥ लक्ष्मच्छलादियदयोगिवधूविघात
सञ्जातपातकभरैर्मलिनप्रतीकः । नो तज्जिहासुरिह किं यदगांहियुग्म
मङ्गीकरोति शयितोऽस्तु स वोऽघहन्ता ।।१९।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244