Book Title: Anusandhan 2013 03 SrNo 60
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 212
________________ १९२ अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १ आगमों की विषयवस्तु उनके ही अन्तःसाक्ष्यों के आधार पर पर्याप्त रूप से बदल गई है। प्रथमतः आचाराङ्ग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी कुछ परवर्तीकालीन है । उसके प्रथम श्रुतस्कन्ध की मुख्य मुख्य बातों को छोड़कर उनमें भी कालक्रम में कुछ बातें डाल दी गई हैं । यद्यपि भगवतीसूत्र को भगवान महावीर और गौतम के बीच संवाद रूप माना जाता है, किन्तु इसमें नन्दीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि के जो निर्देश उपलब्ध है, वे यह तो अवश्य बताते हैं कि वलभी की वाचना के समय इसे न केवल लिपिबद्ध किया गया, अपितु इसकी सामग्री को व्यवस्थित और सम्पादित भी किया गया है । ज्ञाताधर्मकथा महावीर द्वारा कथित दृष्टान्तों एवं कथाओं के संकलन रूप है । भाषिक परिवर्तन के बावजूद भी यह ग्रन्थ अपने मूल स्वरूप में बहुत कुछ सुरक्षित रहा है । उपासकदशा की भी यही स्थिति है । किन्तु अन्तकृत्दशा की विषयवस्तु पर्याप्त रूप से परिवर्तित और परिवर्धित हुई है। उसमें स्थानाङ्ग के उल्लेखानुसार १० अध्ययन थे, जबकि आज ८ वर्ग १० अध्ययन हैं, यही स्थिति अनुत्तरौपपातिक और विपाकसूत्र की भी मानी जा सकती है। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु तो पूर्णतः दो बार बदल चुकी है। विपाकसूत्र में आज सुखविपाक और दुखविपाक ऐसे दो वर्ग है और बीस अध्ययन है, जबकि पहले इसमें दस ही अध्ययन थे । इसी प्रकार कुछ आगमों की विषयवस्तु पूर्णतः बदल गई है और कुछ की विषय वस्तु में कालक्रम में परिवर्तन, परिवर्धन एवं संशोधन हुआ है, किन्तु आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, भगवती, ज्ञाता आदि में बहुत कुछ प्राचीन अंश आज भी सुरक्षित है । अंगबाह्य साहित्य में उपांग सूत्रों में प्रज्ञापना आदि के कुछ के कर्ता और काल सुनिश्चित है। प्रज्ञापना ईसापूर्व या ईसा की प्रथम शती की रचना है । उववाई या औपपातिकसूत्र की विषय वस्तु में भी, जो सूचनाएं उपलब्ध है और जो सूर्याभदेव की कथा वर्णित है, ये सब उसे ईसा की प्रथम शती के आस-पास का ग्रन्थ सूचित करती हैं । राजप्रश्नीय का कुछ अंश तो पालीत्रिपिटक के समरूप है । उसमें आत्मा या चित्तसत्ता के प्रमाणरूप जो तर्क दिये गये हैं, वे त्रिपिटक के समान ही हैं, जो उसकी प्राचीनता के प्रमाण भी हैं । सूर्यप्रज्ञप्ति एवं चन्द्रप्रज्ञप्ति का ज्योतिष भी वेदांग ज्योतिष के समरूप होने से इन ग्रन्थो की प्राचीनता को प्रमाणित करता है । उपांग साहित्य के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244