Book Title: Anusandhan 2013 03 SrNo 60
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 215
________________ जान्युआरी १९५ साहित्य के कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों पर ही नियुक्तियाँ लिखी गई थी, जो आज भी उपलब्ध है । इनमें प्रमुख है I १. आवश्यकनिर्युक्ति, २. आचारांगनिर्युक्ति, ३. दशवैकालिकनियुक्ति, ४. उत्तराध्ययननियुक्ति, ५. सूत्रकृताङ्गनिर्युक्ति, ६. दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति, ७. बृहत्कल्पनिर्युक्ति आदि । निशीथसूत्र पर भी नियुक्ति लिखी गई थी, किन्तु यह निशीथभाष्य में इतनी घुलमिल गई है कि उसे उससे अलग कर पाना कठिन है । इनके अतिरिक्त सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित पर भी नियुक्ति लिखे जाने की प्रतिज्ञा तो उपलब्ध है, किन्तु ये निर्युक्तियाँ लिखी भी गई थी या नहीं, यह कह पाना कठिन है । प्राचीन स्तर की नियुक्तियाँ उस आगम का संक्षिप्त उल्लेख कर कुछ महत्त्वपूर्ण शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करती है । इनके अतिरिक्त नियुक्ति साहित्य के दो अन्य ग्रन्थ और भी उपलब्ध है १. पिण्डनिर्युक्ति और २. ओघनिर्युक्ति । यद्यपि ये दोनों ग्रन्थ दशवैकालिकनिर्युक्ति के ही एक विभाग के रूप में भी माने जाते हैं । साथ ही श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा इन दोनों को आगम स्थानीय भी मानती है । गोविन्दाचार्य कृत दशवैकालिकनिर्युक्ति की सूचना तो उपलब्ध है, किन्तु वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । - २०१३ - आगमिक व्याख्या साहित्य में नियुक्तियों के बाद भाष्य लिखे गये । भाष्यों में विशेषावश्यकभाष्य विशेष प्रसिद्ध हैं । इसके तीन विभाग है । प्रथम विभाग में पंच ज्ञानों की चर्चा है। दूसरा विभाग गणधरवाद के नाम से प्रसिद्ध है - इसमें ग्यारह गणधरो की प्रमुख शंकाओ का निर्देश कर उनके महावीर द्वारा दिये गये समाधानों की चर्चा है । तृतीय विभाग निह्नवों की चर्चा करता है । इसके अतिरिक्त वर्तमान में बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, जीतकल्पभाष्य, पंचकल्पभाष्य भी उपलब्ध है । बृहत्कल्प पर बृहद्भाष्य और लघुभाष्य ऐसे दो भाष्य मिलते हैं । व्यवहारभाष्य, जीतकल्पभाष्य ऐसे दो अन्य भाष्य भी मिलते हैं । पिण्डनिर्युक्तिभाष्य के भी दो संस्करण मिलते हैं । इसी प्रकार पिण्डनिर्युक्ति पर भी एक अन्य भाष्य लिखा गया है, किन्तु ये तीनों भाष्य मैने नहीं देखे हैं । भाष्यों में व्यवहारभाष्य, जीतकल्पभाष्य और बृहत्कल्पभाष्य आज मूल प्राकृत और उसके हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित भी है - इस सम्बंध में समणी कुसुमप्रज्ञाजी का श्रम स्तुत्य है । यह स्पष्ट है कि भाष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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