________________
२१८
अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
दबावी देवा मानस धरावq वाजबी गणाय के केम ? ते प्रश्न जरूर ऊठे छे. आq मानस हुं धरावं तो ते मारा गुरुभगवन्त चलावी ले तेम बने पण नहीं.
मारा ते लेखमां प्रतिपादित विचारो साथे असम्मत थवा कोई पण स्वतन्त्र छे. पण जे असम्मति पाछळनो तर्क के दृष्टिकोण समजवानी इच्छा तो रहे ज. आचार्य भगवन्त जो तर्क-युक्ति-प्रमाणथी मारी वातने खोटी ठेरवशे तो तेनो सर्वाधिक हर्ष मारा गुरुभगवन्तने अने मने पोताने हशे. कारण के आ मन्थन सत्यने मान्यता प्राप्त कराववा माटे छे, मान्यताने सत्य ठराववा माटे नहि.
४. सप्तभङ्गी, नय, निक्षेप व. विशे विशद समजण आपतां प्राचीन शास्त्रोनी पाण्डित्यपूर्ण शैली मारा जेवा विद्यार्थीओने मूंझवण जन्मावे छे. तो बीजी तरफ आ पदार्थोने लोकभोग्य रीते रजू करनारां अर्वाचीन पुस्तको आ विशे बहु ज थोडी समजण पीरसतां होय छे. विशद समजण अने सरळ शैली आ बन्नेनो समन्वय दुष्कर छे, अने छतां आ युगमां अनिवार्य छे. आ संजोगोमां सप्तभङ्गीविंशिका, नयविंशिका जेवा निबन्धग्रन्थो पासे जिज्ञासुओने बहु मोटी आकाक्षा होय छे.
पण सवाल ओ रहे छे के आ निबन्धग्रन्थोमां अपाती समजण शास्त्रीय व्यवस्थाने वफादार केटली ? मौलिक विचारणाओ मूळभूत तत्त्वथी जुदी दिशामां तो नथी फंटाती ने ? अवो प्रश्न पण अनेकवार थाय. आ प्रश्नोना सन्दर्भे आ ग्रन्थोनी विचारणाओ पुनः पुनः चिन्तनीय जणाई छे. ओक सप्तभङ्गी अंगे ज वात करूं तो सप्तभङ्गीविशिकागत निरूपणमां सप्तभङ्गीना मूळभूत नियमो नथी सचवाया लागता. सप्तभङ्गीनु निरूपण वस्तुगत प्रत्येक धर्मनी अनेकान्ततानी सिद्धि माटे थाय छे. पण ओ हेतुने ज अत्रे लक्ष्यमां नथी लीधो. व्यञ्जनपर्याय-अर्थपर्यायनी चर्चा तो बहु दूरनी वात थई. आजे ज्यारे सप्तभङ्गीनुं अध्ययन व्यापकपणे सप्तभङ्गीविंशिकाना आधारे थवा मांड्युं होय त्यारे आ समस्या वधु गम्भीर बने छे.
आइनस्टाइने पोतानी सापेक्षवादनी विचारणा विशे अम जणावेलुं के आ विचारणागत अक पण मुद्दो खोटो ठरे तो आखी विचारणा आपोआप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org